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शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

बिलौटी (भाग पांच)


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वह कोइ देवी हो और भूनेसर अदना सा भक्त।
बिलौटी तड़प उठी।
अपने सौंदय की पूजा करवाने का उसका कोइ इरादा था।
भूनेसर यादव उसका मालिक था। वह एक साधारण नौकर ही तो थी। उसकी क्या कोइ सामाजिक हैसियत थी, जो भूनेसर यादव के सामने ठाट से विराज सके।
वह गड़बड़ा गइ, लेकिन जल्द ही उसे अपने पास उपलब्ध दौलत की ताकत का आभाष हुआ। भूनेसर यादव ठीकेदार एक मामूली लड़की के पैर चूमने को बेताब है।
वह उसके सामने हाथ बांधे खड़ा उसकी निगाहे-करम का तलबगार है।
अनुनय-विनय कर रहा है।
बिलौटी का अभिमान मोम सा गलना चाहता था।
वह असमंजस में थी।
पगली मां के यौन-षोषण की दास्तान और पगली मां का असहाय जीवन उसकी आंखों के सामने सिनेमा की रील की तरह गुज़र रहा था। एक बार अपना सवस्व न्योछावर करने के बाद औरत के पास एक मद को देने के लिए फिर कुछ नया नहीं बचता। वह बासी हो जाती है, सेकण्ड-हैण्ड सामान की तरह।
बिलौटी को तय करना था अपना मूल्य, उसे जाननी थीं अपनी सीमाएं। उसे दिखलाइ पड़ रही थी अपने असुरक्षित भविष्य की काली भयावह परछाइयां।
बिलौटी जानती थी कि कोइ पत्थर की स्लेट नहीं कि उस पर कोइ कुछ भी लिख कर मिटाता रहे। हां, कोइ घाटे का सौदा भी बुरा नहीं होता, यदि उसमें मन कीाांतिाामिल हो।
मन ही मन वह कइ मोचों से लड़ रही थी।
भूनेसर यादव के कांपते-गम हाथ के स्पष से डिग सकता था उसका धैय।
भूनेसर यादव के अंतहीन अहसानों का बोझ, उसकी देह की क़ीमत से कहीं ज्यादा था। लेकिन वह फिर भी उसमें उत्साह का संचार नहीं हो रहा था।
बिलसपुरहिन रेजा की बात बिलौटी को याद हो आइ-’’भूखा सेर है भूनेसरवा भूखा सेर...!’’
उसे हंसी हो आइ।
कहां गयाोर....उसके सामने तो दुम दबाए बैठा है एक पालतू कुत्ता, एक टुकड़ा रोटी की आस में जीभ लपलपाता, तलुए चाटता कुत्ता।
वह पत्थर की मूति की तरह बैठी रही।
भूनेसर यादव से रहा गया।
इतने नखरे, इतना इंतेजार की उसे आदत थी।
झट उसने तुरूप का पत्ता फेंका-’’तुझे रानी बना कर रखूंगा।’’
क्या बिलौटी वाक़इ रानी बनना चाहती थी? नहीं, वह फिर भी पिघली।
भूनेसर यादव और झुका-’’तू खुद बता, तुझे क्या चाहिए?’’
बिलौटी नहीं जानती थी कि उसे क्या चाहिए? इतनी लम्बी योजना उसने कभी बनाइ होती तब कुछ बोल पाती। और आज तक उसे अपनी चाहत प्रकट करने का अवसर ही कहां मिला था। अब जब भूनेसर यादव ने सवाल किया था तो उसे कुछ कुछ कहना ही था, लेकिन उसके पास भाषा का औज़ार कहां था?
बिलौटी चाहती थी कि भूनेसर खुद तय करे कि उसके मन में क्या है?
कोठरी की छप्पर के नन्हे-नन्हे छेद से आती सूरज की किरणों से कमरे में रोषनी थी। चवन्नी-अठन्नी और रूपए के सिक्के की मानिंद सैकड़ों गोल-गोल प्रकाष-वृत्त कमरे में जगमगा रहे थे। ऐसा ही एक रोषनी का गोल सिक्का, बिलौटी की नाक मे डली फुल्ली पर पड़ रहा था। फुल्ली का नग जगमग-जगमग करके बिलौटी के सौंदय को अलौकिक आभा प्रदान कर रहा था। भूनेसर यादव उसके रूप के जादू में फंस चुका था।
बिलौटी उसके लिए एक चैलेंज की तरह थी।
इतनी औरतें आइ जीवन में लेकिन अपना इतना भाव तो किसी ने लगाया था। जाने ये ससुरी बिलौटी क्या सोचे बैठी है?
बिलौटी पलंग से उठने को हुइ।
कहा-’’सनीचरी के संग अनपरा जाकर सिनेमा देखने का मन था।’’
भूनेसर यादव तड़प उठा-’’अरी बिलौटी, छोड़ सिनेमा-विनेमा, का रक्खा है उसमें। तू यहीं बैठी रह। तुझे रानी बना कर रखूंगा। तेरे आस-पास किसी फतिंगे की तरह मंडराता रहूंगा। यदि मैं ठीकेदार बना रहा तो तू भी ठीकेदारिन कहलाएगी।’’
बिलौटी ने इस प्रस्ताव पर भी जब उत्साह दिखलाया तो भूनेसर ने और दाम बढ़ाया-’’तेरे सिवा अब और किसी औरत के पास जाऊंगा। गांव में जैसे मेरी घरवाली है, वैसे तू इस कमक्षेत्र में मेरी पटरानी बन कर रहेगी।’’
बिलौटी की आंखें भर आइं-’’सच्ची!’’
भूनेसर दिल से बोला-’’हां रानी, हां...!’’
भूनेसर को थाह मिल गइ।
बिलौटी को राह मिल गइ।
बिलौटी के पास ऐसे-ऐसे जादू थे कि भूनेसर फिर उसी का होकर रह गया।
गांव की अपनी ब्याहता अहिराइन को भुला ही बैठा, लेकिन बिलौटी ने अपनी सौतन के साथ अन्याय किया। वह हमेषा भूनेसर को याद दिलाती रहती कि उसकी एक और बीवी है।


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पगली मां मर गइ।
भूनेसर का मोटर-साइकिल से एक्सीडेंट क्या हुआ, कि वह चलने-फिरने के लायक रहा। बिलौटी ने उसका पूरा-पूरा साथ दिया।
वह स्वयं भूनेसर यादव के नाम से ठेका लेने लगी।
बिलौटी मदाना लटके-झटके सीख गइ।
भूनेसर उसका दास बना रहा।
बिलौटी की एक बेटी है। बिलौटी ने उसका नाम रखा है सुरसत्ती
सुरसत्ती स्कूल जाती है।
भूनेसर सुरसत्ती को खूब प्यार करता है।
बिटिया सुरसत्ती बिलौटी को कभी-कभी प्यार से समझाया करती-’’मां, मुझे सुरसत्ती कहा कर, मेरा असल नाम सरस्वती है।’’
बिलौटी सरस्वती बोल पाती तो मदानी हंसी के साथ बोलती-’’स्साली सुरसत्ती, दिल लगा कर पढ़ाकर, महतारी की ग़लती निकाला कर...!’’

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