बिलौटी
ठेकेदारिन
साइकिल
से उतरी। साइकिल स्टैंड पर लगा, सीधे परसाद पान गुमटी पर आइ। परसाद का गतिषील हाथ क्षण भर का ठिठका। गुमटी के सामने खड़े अन्य लोगों का ध्यान बंटा।
रामभरोसे
हिंदू
होटल,
धरम
ढाबा,
ममदू
नाइ
की गुमटी और बस-स्टैंड के आस-पास बिखरे लोग सजग हुए। परसाद ने पान का बीड़ा बिलौटी की तरफ बढ़ाया। बिलौटी पान लेकर बड़ी नफ़ासत से उसे एक गाल के सुपुद किया और खुली हथेली परसाद की तरफ बढ़ा दी। परसाद ने अख़बार के टुकड़े पर सादी पत्ती, तीन सौ चौंसठ, चमन बहार और सुपारी के चंद क़तरे रखकर बिलौटी की तरफ पेष किया। पान की एक टूटी डंडी में चूना चिपका कर आगे बढ़ाया। बिलौटी ने बड़े इत्मीनान से तंबाकू-ज़दा फांक कर चूना चाटते हुए एक रूपए का सिक्का गुमटी में बिछे लाल कपड़े पर उछाला। फिर सधे क़दमों से साइकिल की तरफ़ बढ़ गइ।
बिलौटी
के पैरों में जूता-मोजा था। सलीके से बंधी लाल-गुलाबी साड़ी में उसकी गेंहुआ रंगत खिल रही थी। साड़ी और ब्लाउज़ के बीच से झांकता उसका पेट और पीठ का हिस्से पर लोगों की आंखें चिपक गइ थीं। साइकिल के कैरियर में एक रजिस्टर और एक डायरी फंसी थी। उसकी भूरी आंखों के जादू और मद-मार अदाओं से बस-स्टैंड का वातावरण प्रतिदिन इसी तरह मंत्र-बिद्ध होता है।
महाप्रबंधकर
कायालय
की तरफ जाने वाली मुख्य सड़क पर जब वह साइकिल का पैडल मारती सर से चली गइ, तो तमाषबीन बिलौटी के सम्मोहनी प्रभाव से आज़ाद हुए। सहज हुए लोग, सहज हुए दुकानदार, सहज हुए खरीददार, सहज हुए यात्रीगण और सहज हुए बिलौटी के भूत, भविष्य और वतमान जानने का दावा ठोंकने वाले जानकार!
यहां
तक कि उसके व्यक्तित्व से अंजान लोगों के दिलो-दिमाग में काफी देर तक सनसनाती रही बिलौटी...
कितना
भी बखान किया जाए, बिलौटी के विलक्षण व्यक्तित्व का समग्र वणन किसी एक की जु़बान से होना असम्भव है। हर बार कुछ नया जुड़ जाता, कुछ पुराना छूट जाता। नए लोग, पुरानों से खोदा-खादी करते-’’कौन है रे बप्पा, कौन है इ आफ़त!’’
पुराने
टुकड़ों
में
बताते
बिलौटी-पुराण....
कइ
टुकड़ों-चीथड़ों को इकट्ठा कर गुदड़ी बनाने का सब्र इस दौर के श्रोताओं में अब कहां दिखता है? वह भी ऐसे समय में, जब टीवी, सिनेमा वाले किस्सा-कहानियों को नज़रअंदाज़ कर मनोरंजन परोस रहे हैं। नतीजतन बिलौटी एक अबूझ पहेली बनी रहती। जब भी वह मदों के संसार में प्रवेष करती, अनगिनत प्रष्नों, जिज्ञासाओं, दंतकथाओं के बीज छींट कर फुर हो जाती।
कौन
जानता
था कि पगलिया ससुरी की बउड़ही बिटिया बिलौटी बड़ी होकर इतनी तेज-तरार निकल जाएगी। कोयले की झौड़ी (टोकरी) सिर पर ढोते-ढोते इतनी तरक्की कर जाएगी कि एक दिन ‘लेबर-सप्लायर’ बन जाएगी।
‘ठीकेदारिन
कहते
हैं
उसे
मज़दूर-रेज़ा, नेता-परेता।
ठाठ
तो देखिए....ठाड़े-ठाड़े गरियाती है लेबरों, अफसरों और मउगे नेताओं को।
नेता,
अफसर,
ठेकेदारों
के बीच उठती-बैठती और क्या जाने दारू-मुगा भी खींचती है।
ओंठकटवा
तिवारी
राज़दाराना
अंदाज़
में
बताता-’’रे बप्पा, खटिया में खुद ‘मरद’ बन जावै है छिनाल! अच्छे-अच्छे पहलवानों की हवा निकाल देवे है। एही कारन तुलसी बाबा आगाह कर दिए हैं कि ढोर, गंवार, सूद्र, पसु-नारी, इ सब ताड़न के अधिकारी। इन सबसे बच सकौ तो बच के रहौ। लेकिन ओही मूड़ै मां चढ़ाए हैं ससुरे ठीकेदार, मुंषी और कोलियरी के अधिकारी। तब काहे न छानी पे चढ़के मूते इ बिलौटिया....जानत हौ भइया, एक गो बिटिया है ओखर, का जाने ‘सुरसत्त्ती’ कि का नाम रखिस है। ‘सुरसत्ती’ ससुरी अंगरेजी स्कूल में पढ़े जावै है।’’
·
लोग
तो बस याद करते हैं पगलिया को। बिलौटी की मां पगलिया।
पगलिया
की बेषुमार गालियां बस-स्टेंड पर अनवर गूंजा करतीं। वह हवा में गालियां बका करती। स्टैंड के पास बने पोस्ट-आफिस के लाल-डब्बे में लोग चिट्ठियां डालने आते तो उसकी गालियों का षिकार बन जाते। पगलिया को भरम रहता कि चिट््ठी डालने के बहाने लोग उसको और उसकी बिटिया बिलौटी को ताकते हैं। इसीलिए वह अंधा-धुंध गालिया बकती। लोग हंसते। बिलौटी ठीकेदारिन, “ाक्तिनगर-वाराणसी हाइवे के किनारे बस-स्टेंड के ‘टिन-षेड’ पर साधिकार कब्ज़ा जमाकर गुजर-बसर करने वाली पगलिया की कोख-जाइ थी। गरीबी, अभाव, बदकिस्मती और ज़माने की बेरहम ठोकरें खा-खाकर पगलिया का जिस्म जजर हो गया था। उसकी रंगत झुलस चुकी थी। कहते हैं कि पगलिया जब आइ थी ठीक-ठाक दिखाइ देती थी। ओंठकटवा तिवारी ठीकै कहता-’’अरे भइया, जवानी में तो गदहिया भी सुंदर दिखाइ देवै है।’’
यह
तो अच्छा ही हुआ कि पगलिया को बिलौटी के बाद और बच्चे न हुए। बिलौटी का जन्म भी साधारण परिस्थितियों में नहीं हुआ था। तब पगलिया का डेरा बस-स्टेंड का टिन-षेड नहीं हुआ करता था।
चौदह-पंद्रह बरस पहले यहां पर कहां कुछ था।
उत्तर-प्रदेष के मिज़ापुर ज़िले का आखिरी कोना। जहां कोयले की खदान खुलने वाली थी। वाराण्सी से रेनूसागर बिजली कारखाने तक काम-चलाऊ सड़क बन रही थी। तब “ाक्तिनगर आने
के लिए सिंगरौली से रास्ता था या फिर औडी मोड़ से पहाड़ी की की जड़ पकड़ कर पैदल चलने से परासी, बीना, खड़िया, कोटा पहुंचा जाता था।
कहते
हैं
वाराणसी
से रेनूसागर तक पगलिया बस से आइ थी। बस-स्टैंड पर बस खाली हो जाती।
उस
दिन
सब सवारियां उतर गइं और पगलिया न उतरी तो कंडक्टर उसके पास गया।
कंडक्टर
को उस पर पहले से ही “ाक था। किराया न
अदा
की होती तो वह उसे लाता भी नहीं। पगलिया पिछली सीट पर सिकुड़ी-सिमटी बैठी हुइ थी। गठरी थी एक उसके पास, जिसे बड़े जतन से गोद में रखे हुए थी। कंडक्टर कइ तरह की नैतिक-अनैतिक सम्भावनाओं की कल्पना करता उसकी बगल में जा बैठा। बस में और कोइ न था। चालक अपना झोला-सामान लेकर जा चुका था। रात के ग्यारह बज रहे थे। सवारियां अपने गंतव्य तक पहुंचने की हड़बड़ी में थीं। बस-स्टैंड के पष्चिम में एक ढाबा था। ढाबे का मालिक जीवन इस बस का इंतज़ार करके दुकान बढ़ाता था। ठंड अपना असर जमा चुकी थी। जीवन भट्टी की आग ताप रहा था। कंडक्टर और जीवन का पुराना याराना था। कंडक्टर अक्सर बनारस से अद्धा-पउवा ले आया करता और गमागम पराठे, आमलेट और बैगन-आलू के भरते के साथ दोनों साथ-साथ खाना खाते। जीवन सोच रहा था कि कंडक्टर “ाायद दिसा-मैदान गया होगा।
लेकिन
कंडक्टर
के सामने तो एक दूसरी थाली परोसी हुइ थी। माले-मुफ्त, दिले-बेरहम... वह अकेले ही उस भोजन का स्वाद चखना चाहता था।
पगलिया
की देह से अजीब दुगंध फूट रही थी।
बस
की नौकरी, अधजले इंधन की गंध, सिगरेट-बीड़ी-अगरबत्ती की मिली-जुली गंध और दिन भर की थकान से वह परेषान था किन्तु पगलिया की बीस-बाइस साल की युवा देह की दुगंध में एक और आदिम गंध “ाामिल थी।
कंडक्टर
तड़प
उठा।
पूछा
तो पगली मुस्कुराइ। कुछ न बोली। नाम-गांव, रेनूसागर में किसी सगे-सम्बंधी या अन्य कोइ भी जानकारी न देकर वह बस इत्ती सी मुस्कुरा देती। कंडक्टर उसका हाथ पकड़कर उतारने का उपक्रम करने लगा। दुगंधयुक्त देह की मादक गमाहट से वह बौखला सा गया। उसकी बगल में बैठ चुपचाप उसे बांहों में घेर लेना चाहा। पगलिया आंखें झपका कर कुनमुनाइ। उसमें इंकार की आहट थी न इकरार की।
बस
के अंदर चांदनी रात के चांदीनुमा टुकड़े, खिड़की के रास्ते बिखरे पड़े थे। ऐसा ही एक मद्धम-दमकता सा टुकड़ा पगली के चेहरे पर कुदरती गहने के रूप में आ सजा था। पगली की देह-गंध या तो गायब हो गइ थी, या फिर कंडक्टर के कोषिषों को वह सहजता स्वीकार कर रही थी। कंडक्टर इस अद्भुत यथाथ को इष्वर का दिया वरदान समझकर प्रसाद स्वरूप ग्रहण करना चाह रहा था। कंडक्टर अधीर होकर उसकी देह का रसपान करने लगा। अचानक उसे लगा कि पगलिया कुछ बोली है। कंडक्टर चैतन्य हुआ। वह भूखी थी। कंडक्टर ने सोचा भगवान का प्रसाद है, बांट कर खाया जाए तो और अच्छा।
कंडक्टर
अलग
हटा
तो पगली खुष दिखाइ दी। कंडक्टर की जांघ में चिकोटी काट कर हंसी। कंडक्टर पगली के इस खुषी ज़ाहिर करने के तरीके पर सौ जान कु़रबान हुआ। उसकी छातियां नापता वह नीचे उतर गया।
जीवन,
ढाबे
का मालिक, बिहार के सिवान जिले का निवासी था और इस बियाबान में बिना परिवार के रहता था। उसने जब कंडक्टर की बात सुनी तो वह काफी खुष हुआ। तय हुआ कि पगलिया के संग बस के अंदर ही ‘जुगाड-फिट’ किया जाए। उधर पता नहीं पगली को क्या सूझी कि दबे पांव, पोटली कांख में दबाए बस से उतरी और बस के पीछे अंधियारे का लाभ उठाकर उस सड़क पर चल दी, जिसके बारे में वह नितांत अनभिज्ञ थी। उसे नहीं मालूम था कि सड़क कहां जाती है? सड़क वैसे भी कहीं आती-जाती नहीं, जाते तो मुसाफिर ही हैं, किन्तु उसे यह भी तो मालूम न था कि स्वयं उसे कहां जाना है।
आधी
रात!
वह
भी जाड़े के “ाुरूआती दौर की
रात!
औड़ी
मोड़
का यह इलाका अन्य जगहों से कुछ ज्यादा ही ठंडाता है।
पगली
अकबकाइ
सी रेनूसागर की रोषनियों के विपरीत दिषा में चल दी। सामने भी रोषनियों के टुकड़े छितराए थे। महुआ, पलाष और आम के वृक्षों के बीच से छन कर आने वाली चांदनी की फुहारें रास्ता दिखातीं। पगली के लिए उजाला भी तो उतना ही निरथक था जितना कि अंधेरा।
चांद
अपना
सफर
तय करता रहा और रेनूसागर से दक्षिण दिखा की तरफ पगलिया का सफ़र भी ज़ारी रहा। कोयला खदानें अभी नइ-नइ खुली थीं उनके कामगारों के लिए स्थाइ-अस्थाइ निवास बने हुए थे। वह एक ऐसी बस्ती में जा पहुंची जिसे खदानी लोग ‘कालोनी’ कहते थे। महुआ का एक बड़ा सा पेड़ देख वह उसके तने से टिक कर बैठ गइ।
महुआ
के पेड़ के ठीक सामने सिन्हा बाबू का क्वाटर हुआ करता था। नइ कालोनी अभी व्यस्थित नहीं हुइ थी। ‘ले-आउट’ के अनुसार ठेकेदार धड़ाधड़ ‘फिनिषिंग-टच’ देने का प्रयास कर रहे थे। माचिस की डिबियानुमा क्वाटरों में कमचारी अपना संसार गढ़ने में व्यस्त थे। पगली महुआ के पेड़ की पुष्त पर टिकी थी। वह भूख के एहसास को थकावट से पराजित करने का प्रयत्न करती सोने का उपक्रम करने लगी। ठंड अब बढ़ गइ थी।