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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

फिर क्यों ?

ऐसा नही है
कि रहता है वहाँ घुप्प अन्धेरा
ऐसा नही है
कि वहां सरसराते हैं सर्प
ऐसा नही है
कि वहाँ तेज़ धारदार कांटे ही कांटे हैं
ऐसा नही है
कि बजबजाते हैं कीड़े-मकोड़े
ऐसा भी नही है
कि मौत के खौफ का बसेरा है

फिर क्यों
वहाँ जाने से डरते हैं हम
फिर क्यों
वहाँ की बातें भी हम नहीं करना चाहते
फिर क्यों
अपने लोगों को
बचाने की जुगत लागाते हैं हम
फिर क्यों
उस आतंक को घूँट-घूँट पीते हैं हम
फिर क्यों
फिर क्यों.....

बुधवार, 18 सितंबर 2013

आर्कुटिंयन : कहानी : अनवर सुहैल

कहानी:
आरकुटियन
अनवर सुहैल




साहनी साहब ने आरकुट लागिन किया।
जूसीपुस्सी69 आन-लाईन मिली।
साहनी साहब ने चैटिंग पैड पर टाईप किया-‘‘हैलो बेब’’
तत्काल जवाब मिला-‘‘हाय सैक्सी’’
‘‘आज क्या पहन रखा है?’’
‘‘क्या कुछ पहनना जरूरी है?’’
‘‘ओ, मीन्स?’’
‘‘इट डज़न्ट मैटर!’’
‘‘जस्ट आई वान्ट टू सी यू इन पिंक टाप!’’
‘‘या, आयम इन पिंक टाप’’
अचानक डाटा इनकमिंग में प्राब्लम आई। वार्तालाप में बाधा आई।
साहनी साहब ने टाईप किया-‘‘शिट्’’ और नेटवर्क कनेक्शन चेक करने लगे।
वहां उन्होंने अपना यूज़र आई डी बनाया हुआ है ‘हाटीपाटी007’। इस फर्जी आई डी को सपोर्ट करने के लिए उन्होंने जीमेल पर अपना ईमेल आई डी बनाया हुआ है-‘हाटीपाटी007 एट जीमेल डाट काम। वैसे उनका आफीशियल आई डी दूसरा है। साईबर-संसार की अद्भुत माया है, जहां आदमी अपनी असली आईडेंटिटी छुपा कर किसी भी जाली आई डी और विवरण पर ईमेल एकाउण्ट खोल सकता है। नौजवान लड़के लड़कियों के नाम पर आरकुट जैसी सोशल साईट्स पर करोड़ों रोचक जानकारियां अपलोड हैं। अपनी फोटो की जगह वे किसी बालीवुड की हीरोईन को फोटो चिपका देते हैं या फिर एडल्ट साईट से न्यूड थम्बनेल अपलोड कर देते हैं। नए-नए आरकुट रसिक इन नकली लड़कियों से चेट करते हैं और बातों-बातों में अपनी असलियत बता कर ठगी का शिकार होते हैं। बहुत सारी वेबसाईट्स तो ऐसी हैं जो धीरे- धीरे आपके कांफीडेंशियल डिटेल्स पता कर लेते हैं और आपके बैंक एकाउण्ट तक से छेड़खानी करने लगते हैं। नाईजीरियन युवा तो जाली ईमेल भेज कर लाखों डाॅलर की लाटरी आपके नाम निकाल देते हैं और मौका पाकर उस लाखों डाॅलर पाने के लिए आपसे हजारों रूपए ऐंठ लेते हैं। आए दिन अख़बारों में ऐसे कि़स्से आते ही रहते हैं कि साईबर अपराध के ज़रिए अमुक व्यक्ति इतने हज़ार या इतने लाख की ठगी का शिकार हुआ है।
‘हाटीपाटी007’ वाले एकाउण्ट में साहनी साहब ने अपनी डिटेल्स में उम्र दिखाई है इक्कीस वर्ष। शैक्षणिक जानकारी में उन्होंने डाला हुआ है कि वे मेडिकल की पढ़ाई पढ़ रहे हैं। अपनी फोटो की जगह शाहिद कपूर की फोटो अपलोड की है। बहुत सारी लड़कियां और लड़के उनके फाॅलोअर बन चुके हैं। लड़कियां उन्हें एक टेलेण्टेड युवक जानकर उनपर जान छिड़कती हैं और फालोअर लड़कों में अधिकांश ‘गे’ हैं। वे जिस्मानी ताल्लुकात के लिए चेट करते हैं। कई आरकुटियन तो अपनी साईट्स पर एडल्ट सामग्री अपलोड किये हुए हैं। कुल मिलाकर आरकुट एक चटपटी सोशल वेबसाईट है। इसीलिए साहनी साहब आरकुट को चिरकुट भी कहते हैं। वाकई इस सोशल-साईट पर अधिकतर चिरकुट ही आते हैं।
साहनी साहब फुरसत के क्षणों में इंटरनेट चलाते हैं। पहले तो उन्होंने शेयर मार्केट की उथल-पुथल को जानने के लिए नेट का सहारा लिया था लेकिन धीरे-धीरे सोशल साईट्स पर भी जाने लगे। खाली समय में पोर्न साईट्स को भी खंगालते हैं साहनी साहब। ऐसा नहीं है कि साहनी साहब के वैवाहिक जीवन में कोई कमी है लेकिन बचपन से उनके अंदर यौन-जिज्ञासा कूट-कूट कर भरी हुई है। वैसे तो वह महिलाओं से बड़ा सौम्य व्यवहार किया करते हैं। उनकी शराफ़त के कि़स्से हर जगह मशहूर हैं लेकिन जाने क्या बात है कि वे एकांत में विचलित हो जाया करते हैं।
साहनी साहब याद करते हैं अपना बचपन कि जब सत्यम् शिवम् सुंदरम रिलीज़ हुई थी तब ज़ीनत अमान के शाॅट्स को लेकर कितना हाय-तौबा मचा था। राजकपूर की उस कलात्मक फिल्म को एक तरह से वयस्क फिल्म का दर्जा मिला हुआ था। राजकपूर ने स्त्री शरीर और मन को अलगियाया था। जिसमें स्त्री के मन की सुंदरता का बखान किया गया था, लेकिन संसार तो स्त्री देह की सुंदरता को पसंद करता है। वर्जनाओं के चलते, साहनी साहब ने उस समय वह फिल्म नहीं देख पाए थे। यहां तक कि ‘ बाबी’, राम तेरी गंगा मैली जैसी पिक्चरें भी वह उस समय नहीं देख पाए थे। बाद में जब उन्होंने इन पिक्चरों के देखा तो लगा कि इमरान हाशमी और मल्लिका शेरावत यदि उस समय फिल्मों में आते तो भूखे मर जाते। अमूमन पारिवारिक माहौल की कहानियां हुआ करती थीं तब, जिनमें हीरोईन अपने जिस्म की नुमाईश नहीं करती थीं। यहां तक कि फिल्मी गाने भी द्विअर्थी नहीं हुआ करते थे। फिल्म ‘विधाता’ में जब ‘सात सहेलियां खड़ी-खड़ी’ गाना आया तो उस पर बड़ा वबाल मचा था।
फिर जब ‘चोली के पीछे क्या है’ गाना आया तो बाका़यदा उस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस-मुबाहसे हुए थे। जब देश में कलर टेलीविज़न और वी सी आर आया तब जाकर विदेशी नीली फि़ल्में एक ख़ास तबके तक पहुंचीं। टेक्नोलाजी के एडवांस होते-होते नीली फिल्में अब तो मोबाईल के सेट पर उपलब्ध हो रही हैं। थ्री-जी के मोबाईल सेट नौजवानों मं इसीलिए तो लोकप्रिय हो रहे हैं। अब तो सुनते हैं कि फोर-जी टेक्नोलाजी वाले सेट विदेशों में आने लगे हैं। खुदा ख़ैर करे...!
साहनी साहब ने अपनी नौकरी के शुरूआती दौर को याद किया। तब उनकी पोस्टिंग शहडोल में हुई थी। वह सिंचाई विभाग में सब-इंजीनियर थे। काम का दबाव न था। शादी के लिए देखा-देखी चल रही थी। उनका परम-मित्र था मनोज अग्रवाल जो कि एक ठेकेदार था। मनोज अपनी मारूति में लादकर, उनके आवास पर कलर-टीवी और वीसीपी लाता था। साहनी साहब अमिताभ बच्चन के बड़े फैन थे। मनोज अग्रवाल ने उन्हें अमिताभ बच्चन की कई मूवी दिखाई थीं। ‘दीवार’ और ‘सिलसिला’ उनकी पसंदीदा पिक्चरें थीं। अमिताभ की पिक्चर देखने के बाद वे लोग नीली फि़ल्में देखा करते थे। वीसीपी में एक ख़ासियत थी कि कभी कभी उसका टेप फंस जाता था। कभी पिक्चर-क्वालिटी ख़राब आती थी।
काम के सिलसिले में साहनी साहब जब भी भोपाल जाते तो वहां खाली समय में ‘केवल वयस्कों के लिए’ वाली पिक्चर देखा करते थे। माना कि ऐसी फि़ल्मों वाले सिनेमा हाल खटमल और गंदगी का पर्याय हुआ करते थे। लेकिन क्या करें वो। भोपाल के अच्छे सिनेमाघर तो ऐसी फि़ल्में लगाने से रहे। साहनी साहब क्या करते, स्टेटस देखें या दिल की सुनें।
शादी हुई और सरला के रूप में खूबसूरत पत्नी मिली। दहेज में अन्य सामानों के साथ मिला कलर टीवी और एक अदद वीसीडी प्लेयर। उनकी धर्मपत्नी सरला अपने नाम के अनुसार सात्विक और साधु स्वभाव की निकलीं। जब एक दिन उन्होंने वो वाली वीसीडी सरला को दिखलाई तो वह नाराज़ हो गईं। सरला नहीं जानती थी कि शरीर के गोपन रहस्यों की मर्यादा को किस तरह से संसार में देखा-दिखलाया जा रहा है। उसका सनातन मन और दिमाग किसी तरह से साहनी साहब से तारतम्य नहीं बिठा पा रहा था। सरला ने साहनी साहब की खूब लानत-मलामत की। साहनी साहब ने अपने तईं समझाना चाहा कि जिन्दगी हर समय साफ-सुथरी और सात्विक नहीं रहा करती है। शादी के बाद की जि़न्दगी में तो ये सब होना ही चाहिए। आखिर हमारे ऋषि-मुनियों ने भी काम से हार मानी थी। खजुराहो की मूर्तियां क्या हमारी सांस्कृतिक विरासत नहीं हैं। आचार्य रजनीश भी तो कहा करते हैं कि संभोग से समाधि मिलती है। कितने बड़े-बड़े विद्वान आचार्य रजनीश के शिष्य हैं। पति-पत्नी के बीच हमेशा साफ-सुथरी बातें नहीं होनी चाहिए। कभी-कभी जिन्दगी को ग़लाज़त से लबरेज़ भी होना चाहिए। इससे टेस्ट चेंज होता है और जि़न्दगी के कैनवास में नए रंग भरते हैं।
सरला उनके भोथरे तर्कों से पराजित नहीं हुई।
आत्म-रति के अभ्यस्त साहनी साहब ने फिर ये रास्ता निकाला कि जब सरला मैके जाती, वो धड़ल्ले से मनपसंद वीसीडी देख लिया करते। स्खलन के क्षणों में साहनी साहब को अपनी इस नामुराद आदत पर ग्लानि होती। वे प्रण करते कि अब सादगी भरा संयमित जीवन जिएंगे। लेकिन क़समें तो तोड़ने के लिए ही खाई जाती हैं।  वीसीडी किराए पर मिल ही जाती थी। कई वीडियो पार्लर वालों से साहनी साहब का व्यक्तिगत परिचय था। इन वीसीडीयों को साहनी साहब अपनी पर्सनल फ़ाईलों के बीच छुपा कर रखते ताकि बच्चों के हाथ न लगें।
साहनी साहब जब टूर पर होते तो होटल के कमरे में वीसीडी देखने का जुगाड़ बना लिया करते। होटल के नौकर चंद टुकड़ों की खातिर उनकी जी-हुजूरी करते।
एक बार की बात है। भोपाल की एक सीडी पार्लर में साहनी साहब पहुंचे। चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल और गेट-अप से अधिकारी तो दिखते ही हैं। जब उन्होंने पार्लर के लड़के से इधर-उधर की सीडी खरीदने के बाद सीधे नीली फि़ल्मों की सीडी मांगी, तो वह उन्हें अजीबो-गरीब नज़र से देखने लगा और बोला--‘‘हम लोग ये धंधा नहीं करते।’’
साहनी साहब को बहुत बुरा लगा था। क्या करते, जबकि आए दिन छापामारी में इन्हीं जैसी सीडी की दुकानों से अवैध नीली फि़ल्मों का ज़ख़ीरा बरामद होता है। उन्हें अपनी आदत पर उस दिन कोफ़्त हुई थी। उन्होंने अपने को काफ़ी लानत-मलामत की थी। क्यों उन्हें इन फि़ल्मों का चस्का लगा हुआ है। कितनी बेइज़्ज़ती होती है। उन्होंने प्रण किया था कि अब वे स्वयं कभी इस तरह की सीडी नहीं खरीदेंगे। भले से पुरानी पड़ी सीडियों को हज़ार बार देख लेंगे।
कई बार आत्म-ग्लानि के क्षणों में उन्होंने फाईल में छुपाई हुई सीडियों को आवास के पिछवाड़े फेंका भी है लेकिन फिर जाने कैसे-कैसे नई सीडियां उन तक आ जाती हैं।
एक बार तो ग़ज़ब हो गया। जब उन्होंने नया-नया कम्प्यूटर चलाना सीखा था, तब एक बार पोर्न साईट्स पर एक ऐसा एडल्ट पाॅप-अप आया कि कम्प्यूटर की स्क्रीन पर आ जमा। उन्होंने कई तरकीबें की कि वह सीन स्क्रीन से ग़ायब हो जाए, लेकिन सीन हिला नहीं। उन्होंने टास्क-मैनेजर से उसे डिलीट करना चाहा। असफल रहे। कम्प्यूटर को शट-डाउन करना चाहा, नहीं हुआ। तब उन्होंने कम्प्यूटर को पावर आफ कर बंद किया। फिर दुबारा कम्प्यूटर आन किया तो एडल्ट सीन उसी तरह वाल-पेपर पर स्थिर था। वह घबरा गए। चूंकि बेटा तब छोटा था और कम्प्यूटर  को सिर्फ वही चलाया करते थे। इसलिए उन्होंने चुपचाप कम्प्यूटर आॅफ किया और बाज़ार से दो हज़ार रूपए का एक एण्टी-वायरस ले आए। एण्टी-वायरस डालने के बाद कहीं जाकर कम्प्यूटर नार्मल हुआ था।



साहनी साहब का बेटा गौरव ग्यारहवीं का छात्र है। वह भी कम्प्यूटर पर काम है। सीधा-साधा सुशील बच्चा है गौरव। एकदम शर्मीला। हमेशा अपनी मम्मी के आंचल में पनाह लेने वाला। नगर में अच्छे ट्यूटोरियल नहीं है। इसलिए आन-लाईन कोचिंग की व्यवस्था की साहनी साहब ने। इसके लिए बच्चे का ईमेल आई डी भी बना दिया। गौरव अपनी आईडी पा कर बड़ा खुश हुआ। साहनी साहब ने उसका जीमेल एकाउण्ट बनाया था। गौरव साहनी साहब को आरकुटिंग करते देखा करता था। साहनी साहब ने कई बार गौरव को जीमेल पर चैट करते देखा और डांटा भी था कि समय बर्बाद न किया करो लेकिन गौरव कहां मानने वाला था।
गौरव का दोस्त था सोहन। बैंक मैनेजर का बेटा। इस दोस्ती के कारण साहनी साहब की बैंक मैनेजर से पहचान हो गई थी। शाम को गौरव, सोहन के घर चले जाता।  कहता कि डाउट-क्लियर करते हैं वे और थोड़ा घूम-फिर लेते हैं। वह समय साहनी साहब का नेट पर बैठने का होता तो वह भी नहीं चाहते थे कि उनके घर में विध्न रहे और वह निष्कंटक इंटरनेट का मज़ा ले सकें। सरला कम्प्यूटर को अपनी सौतन कहा करती। बड़बड़ाते हुए उनके सामने चाय और बिस्किट रख दिया करती।
जूसी-पुस्सी के अलावा भी कई ऐसे आरकुटियन्स थे जिनसे साहनी साहब हाटीपाटी007 बनकर चैट किया करते थे। वह प्राईवेट मोड पर नेट चलाया करते और काम खतम करने से पूर्व सभी हिस्टरी को क्लियर कर दिया करते थे। यहां तक कि कूकीज़ को भी डिलीट कर दिया करते थे। वह नहीं चाहते थे कि कोई ये जान पाए कि उन्होंने कौन-कौन सी वेबसाईट्स पर सर्फिंग की थी।



एक दिन ग़ज़ब हो गया और साहनी साहब ने अंततः घर का  ‘ब्राडबैंड कनेक्शन’ कटवा दिया।
हुआ ये कि साहनी साहब कार्यालय के काम से टूर पर गए।
वापस लौटे सुबह के दस बजे। गौरव की छुट्टी थी। घर में लाईट गोल थी। गौरव उनकी बाईक लेकर अपने दोस्त सोहन के घर गया हुआ था। साहनी साहब नहा-धोकर और नाश्ता करके रीते तब तक लाईट आ गई। उन्होंने सोचा कि इस बीच अपना इनबाॅक्स चेक कर लें। उन्होंने कम्प्यूटर आन किया। इंटरनेट कनेक्ट करके वेब-ब्राउज़र खोला। देखा कि आॅप्शन बाॅक्स पर लिखा आ रहा है--‘‘रिज़्यूम साईट्स’’ इसका मतलब था कि गौरव नेट चला रहा था कि लाईट चली गई थी। उन्होंने ‘यस’ पर क्लिक किया।
आॅरकुट का पेज खुल गया।
साहनी साहब तो जब भी नेट यूज़ करते आखिर में ‘साईन-आउट’ ज़रूर करते हैं, ताकि ‘रि-स्टार्ट’ करने में पेज बिना ‘लाॅगिन’ के न खुलें। इसका मतलब बेटे गौरव ने आरकुट पर काम किया था और अचानक लाईट चले जाने के कारण ‘साईन-आउट’ नहीं कर पाया होगा।
लेकिन यह क्या? खुला हुआ पेज तो ‘जूसीपुस्सी’ का था।
‘जूसीपुस्सी’ माने साहनी साहब की आरकुट फ्रेण्ड!
साहनी साहब के होश उड़ गए।
यानी अब तक जिस ‘जूसीपुस्सी’ से साहनी साहब ‘हाटीपाटी007’ नाम से चेटिंग किया करते थे, वह कोई सेक्सी लड़की नहीं बल्कि उनका अपना सपूत गौरव ही था।
इसका मतलब बेटा गौरव शाम को जो अपने दोस्त के घर खेलने नहीं जाया करता था, बल्कि नेट चलाने जाया करता था और ‘जूसीपुस्सी’ निकनेम से उनके साथ चैट किया करता था!
गौरव साहब ने माथा पकड़ लिया और आनन-फानन में इंटरनेट कनेक्शन नोच कर फेंक दिया।


सम्पर्क: अनवर सुहैल, टाईप 4/3, आफीसर्स कालोनी, बिजुरी, अनूपपुर मप्र 484440  09907978108

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

बिलौटी (भाग पांच)


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वह कोइ देवी हो और भूनेसर अदना सा भक्त।
बिलौटी तड़प उठी।
अपने सौंदय की पूजा करवाने का उसका कोइ इरादा था।
भूनेसर यादव उसका मालिक था। वह एक साधारण नौकर ही तो थी। उसकी क्या कोइ सामाजिक हैसियत थी, जो भूनेसर यादव के सामने ठाट से विराज सके।
वह गड़बड़ा गइ, लेकिन जल्द ही उसे अपने पास उपलब्ध दौलत की ताकत का आभाष हुआ। भूनेसर यादव ठीकेदार एक मामूली लड़की के पैर चूमने को बेताब है।
वह उसके सामने हाथ बांधे खड़ा उसकी निगाहे-करम का तलबगार है।
अनुनय-विनय कर रहा है।
बिलौटी का अभिमान मोम सा गलना चाहता था।
वह असमंजस में थी।
पगली मां के यौन-षोषण की दास्तान और पगली मां का असहाय जीवन उसकी आंखों के सामने सिनेमा की रील की तरह गुज़र रहा था। एक बार अपना सवस्व न्योछावर करने के बाद औरत के पास एक मद को देने के लिए फिर कुछ नया नहीं बचता। वह बासी हो जाती है, सेकण्ड-हैण्ड सामान की तरह।
बिलौटी को तय करना था अपना मूल्य, उसे जाननी थीं अपनी सीमाएं। उसे दिखलाइ पड़ रही थी अपने असुरक्षित भविष्य की काली भयावह परछाइयां।
बिलौटी जानती थी कि कोइ पत्थर की स्लेट नहीं कि उस पर कोइ कुछ भी लिख कर मिटाता रहे। हां, कोइ घाटे का सौदा भी बुरा नहीं होता, यदि उसमें मन कीाांतिाामिल हो।
मन ही मन वह कइ मोचों से लड़ रही थी।
भूनेसर यादव के कांपते-गम हाथ के स्पष से डिग सकता था उसका धैय।
भूनेसर यादव के अंतहीन अहसानों का बोझ, उसकी देह की क़ीमत से कहीं ज्यादा था। लेकिन वह फिर भी उसमें उत्साह का संचार नहीं हो रहा था।
बिलसपुरहिन रेजा की बात बिलौटी को याद हो आइ-’’भूखा सेर है भूनेसरवा भूखा सेर...!’’
उसे हंसी हो आइ।
कहां गयाोर....उसके सामने तो दुम दबाए बैठा है एक पालतू कुत्ता, एक टुकड़ा रोटी की आस में जीभ लपलपाता, तलुए चाटता कुत्ता।
वह पत्थर की मूति की तरह बैठी रही।
भूनेसर यादव से रहा गया।
इतने नखरे, इतना इंतेजार की उसे आदत थी।
झट उसने तुरूप का पत्ता फेंका-’’तुझे रानी बना कर रखूंगा।’’
क्या बिलौटी वाक़इ रानी बनना चाहती थी? नहीं, वह फिर भी पिघली।
भूनेसर यादव और झुका-’’तू खुद बता, तुझे क्या चाहिए?’’
बिलौटी नहीं जानती थी कि उसे क्या चाहिए? इतनी लम्बी योजना उसने कभी बनाइ होती तब कुछ बोल पाती। और आज तक उसे अपनी चाहत प्रकट करने का अवसर ही कहां मिला था। अब जब भूनेसर यादव ने सवाल किया था तो उसे कुछ कुछ कहना ही था, लेकिन उसके पास भाषा का औज़ार कहां था?
बिलौटी चाहती थी कि भूनेसर खुद तय करे कि उसके मन में क्या है?
कोठरी की छप्पर के नन्हे-नन्हे छेद से आती सूरज की किरणों से कमरे में रोषनी थी। चवन्नी-अठन्नी और रूपए के सिक्के की मानिंद सैकड़ों गोल-गोल प्रकाष-वृत्त कमरे में जगमगा रहे थे। ऐसा ही एक रोषनी का गोल सिक्का, बिलौटी की नाक मे डली फुल्ली पर पड़ रहा था। फुल्ली का नग जगमग-जगमग करके बिलौटी के सौंदय को अलौकिक आभा प्रदान कर रहा था। भूनेसर यादव उसके रूप के जादू में फंस चुका था।
बिलौटी उसके लिए एक चैलेंज की तरह थी।
इतनी औरतें आइ जीवन में लेकिन अपना इतना भाव तो किसी ने लगाया था। जाने ये ससुरी बिलौटी क्या सोचे बैठी है?
बिलौटी पलंग से उठने को हुइ।
कहा-’’सनीचरी के संग अनपरा जाकर सिनेमा देखने का मन था।’’
भूनेसर यादव तड़प उठा-’’अरी बिलौटी, छोड़ सिनेमा-विनेमा, का रक्खा है उसमें। तू यहीं बैठी रह। तुझे रानी बना कर रखूंगा। तेरे आस-पास किसी फतिंगे की तरह मंडराता रहूंगा। यदि मैं ठीकेदार बना रहा तो तू भी ठीकेदारिन कहलाएगी।’’
बिलौटी ने इस प्रस्ताव पर भी जब उत्साह दिखलाया तो भूनेसर ने और दाम बढ़ाया-’’तेरे सिवा अब और किसी औरत के पास जाऊंगा। गांव में जैसे मेरी घरवाली है, वैसे तू इस कमक्षेत्र में मेरी पटरानी बन कर रहेगी।’’
बिलौटी की आंखें भर आइं-’’सच्ची!’’
भूनेसर दिल से बोला-’’हां रानी, हां...!’’
भूनेसर को थाह मिल गइ।
बिलौटी को राह मिल गइ।
बिलौटी के पास ऐसे-ऐसे जादू थे कि भूनेसर फिर उसी का होकर रह गया।
गांव की अपनी ब्याहता अहिराइन को भुला ही बैठा, लेकिन बिलौटी ने अपनी सौतन के साथ अन्याय किया। वह हमेषा भूनेसर को याद दिलाती रहती कि उसकी एक और बीवी है।


·         
पगली मां मर गइ।
भूनेसर का मोटर-साइकिल से एक्सीडेंट क्या हुआ, कि वह चलने-फिरने के लायक रहा। बिलौटी ने उसका पूरा-पूरा साथ दिया।
वह स्वयं भूनेसर यादव के नाम से ठेका लेने लगी।
बिलौटी मदाना लटके-झटके सीख गइ।
भूनेसर उसका दास बना रहा।
बिलौटी की एक बेटी है। बिलौटी ने उसका नाम रखा है सुरसत्ती
सुरसत्ती स्कूल जाती है।
भूनेसर सुरसत्ती को खूब प्यार करता है।
बिटिया सुरसत्ती बिलौटी को कभी-कभी प्यार से समझाया करती-’’मां, मुझे सुरसत्ती कहा कर, मेरा असल नाम सरस्वती है।’’
बिलौटी सरस्वती बोल पाती तो मदानी हंसी के साथ बोलती-’’स्साली सुरसत्ती, दिल लगा कर पढ़ाकर, महतारी की ग़लती निकाला कर...!’’