राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पहचान |
घण्टी की टनटनाहट के साथ प्लेटफार्म में हलचल मच गइ।
रात के ठिठुरते अंधियारे को चीरती पैसेंजर की सीटी नज़दीक आती गइ और चोपन-कटनी पैसेंजर ठीक साढ़े बारह बजे प्लेटफार्म पर आकर रूकी।
इक्का-दुक्का मुसाफिर गाड़ी से उतरे। पूरी गाड़ी अमूमन खाली थी।
यूनुस जल्दी से इंजन की तरफ भागा। वह इंजिन के पीछे वाली पहली बोगी में बैठना चाहता था। यदि खालू आते भी हैं तो इतनी दूर पहुंचने में उन्हे समय तो लगेगा ही
पहली बोगी में वह चढ़ गया।
दरवाज़े से लगी पहली सीट पर एक साधू महाराज लेटे थे।
अगली लार्इन में कोइ न था। हांए वहां अंधेरा ज़रूर था। वैसे भी यूनुस अंधेरी जगह खोज भी रहा था। उसने अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पर फेंक दिया और ट्रेन से नीचे उतर आया।
वह चौकन्ना सा चारों तरफ देख रहा था।
अचानक उसके होश उड़ गए।
स्टेशन के प्रवेश.द्वार पर खालू नीले ओव्हर-कोट में नज़र आए। उनके साथ एक आदमी और था। वे लोग बड़ी फुर्ती से पहले गाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ गए।
यूनुस तत्काल बोगी पर चढ़ गया और टॉयलेट में जा छिपा।
उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं।
ट्रेन वहां ज्यादा देर रूकती नहीं थी।
तभी उसे लगा कि कोर्इ उसका नाम लेकर आवाज़ दे रहा है.यू...नू...स! यू...नू...स !
यूनुस टॉयलेट में दुबक कर बैठ गया।
गाड़ी की सीटी की आवाज़ आरइ और फिर गाड़ी चल पड़ी।
वह दम साधे दुबका रहा।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तब उसकी सांस में सांस आर्इ।
बैग कंधे पर टांगे हुए ही वह खड़े.खड़े मूतने लगा।
वाश.बेसिन के पानी से उंगलियों को धोते वक्त उसकी निगाहें आइने पर गइं।
आर्इने के दाहिनी तरफ स्केच पेन से स्त्री-पुरूष के गोपन-सम्बंधों को बयान करता एक बचकाना रेखांकन बना हुआ था।
यूनुस ने दिल बहलाने के लिए उस टॉयलेट की अन्य दीवारों पर निगाह दौड़ाइ।
दीवार में चारों तरफ उसी तरह के चित्र बने थे और साथ में अश्लील फिकरे भी दर्ज थे।
यूनुस टॉयलेट से बाहर निकलाए लेकिन वह चौकन्ना था।
ट्रेन की खिड़की से उसने बाहर झांका।
दो पहाड़ियों के बीच से गुज़र रही थी गाड़ी। आगे जाकर महदर्इया की रोशनी दिखार्इ देगी क्योंकि अगला स्टेशन महदइया है।
सिंगरौली कोयला क्षेत्र का आखिरी कोना महदइया यानी गोरबी ओपन-कास्ट खदान।
हो सकता है कि खालू ने खबर की हो तो महदइया स्टेशन में उनके मित्र उसे खोजने आए हुए हों।
पहाड़ियां समाप्त हुइं और रोशनी के कुमकुम जगमगाते नज़र आने लगे।
इसका मतलब स्टेशन क़रीब है।
महदर्इया स्टेशन के प्लेटफार्म में प्रवेश करते समय ट्रेन की गति धीमी हुइ तो यूनुस पुनरू एक टॉयलेट में जा घुसा। वह किसी तरह के ख़तरे का सामना नहीं करना चाहता था।
उसका अंदाज़ सही था।
इस प्लेटफार्म पर भी उसे अपने नाम की गूंज सुनाइ पड़ी। इसका मतलब ये सच था कि खालू ने यहां भी अपने दोस्तों को फोन कर दिया था।
वह टॉयलेट में दुबक कर बैठा रहा और पांच मिनट बाद ट्रेन सीटी बजा कर आगे बढ़ ली।
यूनुस ने राहत की सांस ली।
टॉयलेट से वह बाहर निकला।
उसने देखा कि साधू महाराज के पैर के पास एक स्त्री बैठी है। वह एक देहाती औरत थी। साधू महाराज के वह पांव दबा रही थी।
यूनुस ने उस सीट के सामने ऊपर वाली बर्थ पर अपना बैग रखा। फिर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ कर शीशे के पार अंधेरे की दीवार को भेदने की बेकार सी कोशिश करने के बाद अपनी बर्थ पर उचक कर चढ़ गया।
उसे नींद आने लगी थी।
एयर.बैग से उसने गर्म चादर निकाली और उसे ओढ़ लिया। एयर.बैग अपने सिरहाने रख लिया ताकि चोरी का ख़तरा न रहे।
ट्रेन की लकड़ी की बेंच ठंडा रही थी। वैसे तो उसने गर्म कपड़े पर्याप्त मात्रा में पहन रखे थेए लेकिन ठंड तो ठंड ही थी। रात के एक.डेढ़ बजे की ठंड। उसका सामना के करने लिए औज़ार तो होने ही चाहिए।
वह उठ बैठा और अपनी जेब से सिगरेट निकाल ली। सिगरेट सुलगाते हुए साधू महाराज की तरफ उसकी निगाह गइ।
देहाती स्त्री बड़ी श्रद्धा से साधू महाराज के पैर दबा रही थी।
साधू महाराज यूनुस को सिगरेट सुलगाते देख रहे थे। दोनों की निगाहें मिलीं।
यूनुस ने महसूस किया कि वह भी धूम्रपान करना चाहता है।
यूनुस बर्थ से नीचे उतरा।
उसने महाराज की तरफ सिगरेट बढ़ाइ।
साधू महाराज खुश हुआ।
उसने सिगरेट सुलगाइ और गांजा की तरह उस सिगरेट के सुट्टे मार कर बाकी बची सिगरेट स्त्री को दे दी।
स्त्री प्रसन्न हुइ।
उसने सिगरेट को पहले माथे से लगाया फिर भोले बाबा का प्रसाद समझ उस सिगरेट को पीने लगी।
स्त्री के बाल लटियाए हुए थे। हो सकता है कि वह सधुआइन बनने की प्रक्रिया में हो। उसके माथे पर भभूत का एक बड़ा सा टीका लगा हुआ था।
उसकी आंखों में शर्मो.हया एकदम न थी। वह एक यंत्रचालित इकाइ सी लग रही थी। तमाम आडम्बर से निरपेक्षए साधू महाराज की सेवा में पूर्णतया समर्पित......
साधू महाराज ने पूछा."कौन बिरादरी का है तू?"
यूनुस को मालूम है कि बाहर पूछे गए ऐसे प्रश्नों का क्या जवाब दिया जाए। जिससे माहौल न बिगड़े और काम भी चल जाए।
एक बार उसने सच बोलने की ग़ल्ती की थी, जिसके कारण उसे बेवजह तकलीफ़ उठानी पड़ी थी।
उसे कटनी में स्थित उस धर्मशाला का स्मरण हो आया, जहां वह एक रात रूकना चाहता था।
तब सिंगरौली के लिए चौबीस घण्टे में एक ट्रेन चला करती थी। कोतमा से वह कटनी जब पहुंचा तब तक सुबह दस बजे चोपन जाने वाल पैसेंजर गाड़ी छूट चुकी थी। अब दो रास्ते बचे थे। वापस कोतमा लौटा जाए या फिर कटनी में ही रहकर चौबीस घण्टे बिताए जाएं। वैसे कटनी घूमने.फिरने लायक नगर तो है ही। कुछ सिनेमाघरों में "केवल वयस्कों के लिए" वाली पिक्चर चल रही थीं। ट्रेन में ही एक मित्र बना युवक उससे बोला कि चलो, स्टेशन के बाहर एक धर्मशाला है। मात्र दस रूपए में चौबीस घण्टे ठहरने की व्यवस्था। खाना इंसान कहीं भी खा लेगा। हांए एक ताला पास में होना चाहिए। धर्मशाला में ताला नहीं मिलता। जो भी कमरा मिले उसमे ग्राहक अपना ताला स्वयं लगाता है। यूनुस ने कहा था कि ताला खरीद लिया जाएगा।
वे लोग स्टेशन के बाहर निकले और सड़क के किनारे बैठे एक ताला.विक्रेता से यूनुस ने दस रूपए वाला एक सस्ता सा ताला खरीद लिया।
वे दोनों धर्मशाला पहुंचे।
पीली और गेरूआ मिट्टी से पुती हुइ एक पुरानी इमारत का बड़ा सा प्रवेश.द्वार। जिस के माथे पर अंकित था.
"जैन धर्मशाला"
वह अंदर घुसा।
अंदर द्वार से लगा हुआ प्रबंधक का कमरा था।
उस समय वहां कोइ भी न था।
सहयात्री ने कहा कि चलो, धर्मशाला देख तो लो।
वे दोनों अंदर की तरफ पहुंचे। दुतल्ला में चारों तरफ कमरे ही कमरे बने थे। बीच में एक उद्यान था। उद्यान के अंदर एक मंदिर। पानी का कुंआए हैंड.पम्पए और नल के कनेक्शन भी थे।
वे वापस आए।
प्रबंधक महोदय आ चुके थे।
वह एक कृशकाय वृद्ध थे।
चश्मे के पीछे से झांकती आंखें।
उन्होंने रजिस्टर खोल कर लिखना शुरू किया.
"नाम?"
सहयात्री ने बताया.
"कमल गुप्ता."
."पिता का नाम?"
."श्री विमल प्रसाद गुप्ता"
"कहा से आना हुआ और कटनी आने का उद्देश्य?"
."चिरीमिरी से कटनी आया रेडियो का सामान खरीदने।"
."ताला है न?"
कमल गुप्ता ने बताया."हाँ !"
प्रबंधक महोदय ने रजिस्टर में कमल से हस्ताक्षर करवाकर उसे कमरा नम्बर पांच आबंटित किया।
फिर उन्होंने यूनुस को सम्बोधित किया।
."नाम?"
."जी मुहम्मद यूनुस"।
स्वाभाविक तौर पर यूनुस ने जवाब दिया।
प्रबंधक महोदय ने उसे घूर कर देखा। उनकी भृकुटि तन गइ थी। चेहरे पर तनाव के लक्षण साफ दिखलाइ देने लगे।
लम्बा.चौड़ा रजिस्टर बंद करते हुए बोले.
"ये धर्मशाला सिर्फ हिन्दुओं के लिए है। तुम कहीं और जाकर ठहरो।"
सहयात्री कमल गुप्ता नहीं जानता था कि यूनुस मुसलमान है। सफ़र में बातचीत के दौरान नाम जानने की ज़रूरत उन दोनों को महसूस नहीं हुइ थी, शायद इसलिए वह भी उसे घूरने लगा।
यूनुस के हाथ में एक नया ताला था।
वह कभी प्रबंधक महोदय के दिमाग में लगे ताले को देखता और कभी अपने हाथ के उस ताले को, जिसे उसने कुछ देर पहले बाहर खरीदा था।
उसने अपनी ज़िन्दगी के व्यवहारिक-शास्त्र का एक और सबक हासिल किया था।
वह सबक था कि देश-काल-वातावरण देखकर अपनी असलियत ज़ाहिर करना।
उसने जाने कितनी ग़ल्तियां करके, जाने कितने सबक याद किए थे।
सलीम भार्इ के पास ऐसी सहज.बुद्धि न थी, वरना वह ऐसी गल्तियां कभी न करता और गुजरात के क़त्ले.आम में यूं न मारा जाता।
इसीलिए जब साधू महाराज ने उसकी बिरादरी पूछी तो वह सचेत हुआ और तत्काल बताया. m हाराज मैं जात का कुम्हार हूं।
साधू महाराज के चेहरे पर सुकून छा गया।
चेहरा.मोहराए चाल-ढाल, कपड़ा-लत्ता और रंग-रूप से उसे कोइ नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान युवक है जब तक कि वह स्वयं ज़ाहिर न करे। उसे क्या ग़रज कि वह बैठे.बिठाए मुसीबत मोल ले।
वह इतना चालाक हो गया है कि लोगों के सामने अल्ला.कसम नहीं बोलता बल्कि भगवान.कसम या राम कसम बोलता है। अल्ला जाने क्या होगा की जगह भगवान जाने या फिर राम जाने कह कर काम चला लेता है।
अगर कोर्इ साधू या पुजारी प्रसाद देता है तो बाकायदा झुक कर बार्इं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर उस पर प्रसाद लेता है और उसे खाकर दोनों हाथ सिर पर फेरता है। जबकि वही सलीम भार्इ हिन्दुओं से पूजा.पाठ आदि का प्रसाद लेता ही नहीं था। यदि गल्ती से प्रसाद ले भी लिया तो फिर उसे खाता नहीं था बल्कि चुपके से फेंक देता था।
यूनुस को यदि कोइ माथे पर टीका लगाए तो वह बड़ी श्रद्धा.भाव प्रकट करते हुए बड़े प्रेम से टीका लगवाता और फिर उसे घण्टों न पोंछता।
ऐसी दशा में उस पर कोर्इ संदेह कैसे कर सकता है कि वह हिन्दू नहीं है।
वैसे भी अनावश्यक अपनी धर्म-जाति प्रकट कर परदेश में इंसान क्यों ख़तरा मोल ले।
बड़ा भाइ सलीम अगर यूनुस की तरह सजग.सचेत रहता। खामखां मिंया-कट दाढ़ी. गोल टोपीए लम्बा कुर्ता और उठंगा पैजामा न धारण करता तो गुजरात में इस तरह नाहक न मारा जाता!
साधू महाराज ने यूनुस को आशीर्वाद दिया. तू बड़ा भाग्यशाली है बच्चा! तेरे उन्नत ललाट बताते हैं कि पूर्वजन्म में तू एक पुण्यात्मा था। इस जीवन में तुझे थोड़ा कष्ट अवश्य होगा लेकिन अंत में विजय तेरी होगी। तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी। यूनुस साधू महाराज के चेहरे को देख रहा था।
उसके चेहरे पर चेचक के दाग़ थे। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुर्इ थी। उसकी आयु होगी यही कोर्इ पचासेक साल। चेहरे पर काइंयापन की लकीरें।
साधू महाराज के आशीर्वाद से यूनुस को कुछ राहत मिली।
वह पुनरू अपनी जगह पर चला गया और बैग से लुंगी निकालकर उसे बर्थ पर बिछा दिया ताकि लकड़ी की बेंच की ठंडक से रीढ़ की हड्डी बची रहे।
बर्थ पर चढ़ कर उसने जूते उतारकर पंखे पर अटका दिए।
अब वह सोना चाहता था।
एक ऐसी नींद कि उसमें ख्वाब न हों।
एकदम चिन्तामुक्त सम्पूर्ण निद्रा!
जबकि यूनुस जानता है कि उसे नींद आसानी से नहीं आया करती। नींद बड़ी मान.मनौवल के बाद आया करती है।
उसने उल्टी तरफ करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा।
खटर खट खट...खटर, खट...खट
ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी।
सुबह छरू बजे तक ट्रेन कटनी पहुंच जाएगी। फिर सात.साढ़े सात बजे बिलासपुर वाली पैसेंजर मिलती है। उससे बिलासपुर तक पहुंचने के बाद आगे कोरबा के लिए मन पड़ेगा तो ट्रेन या बस पकड़ी जाएगी।
बिलासपुर में स्टेशन के बाहर मलकीते से मुलाकात हो जाएगी।
मलकीते के पापा का एक ढाबा कोतमा में हुआ करता था। सन् चौरासी के सिख.विरोधी दंगों में वह होटल उजड़ गया। सिख समाज में ऐसा डर बैठा कि आम हिन्दुस्तानी शहरी दिखने के लिए सिख लोगों ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते तब बच्चा था। अपने सिर पर रूमाल के ज़रिए वह केश बांधा करता था। वह गोरा.नारा खूबसूरत लड़का था। यूनुस को याद है कि लड़के उसे चिढ़ाया करते थे कि मलकीते अपने सिर में अमरूद छुपा कर आया करता है।
उसके पापा एक रिश्तेदारों से मिलने रांची गए थे और इंदिरा.गांधी की हत्या हो गर्इ। वे उस समय सफर कर रहे थे। सुनते हैं कि सफर के दौरान ट्रेन में उन्हें मार दिया गया था।
उस कठिन समय में मलकीते ने अपने केश कटवा लिए थे।
मलकीते के बारे में पता चला था कि सन् चौरासी के बाद मलकीते की माली हालत खराब हो गइ थी।
तब मलकीते की मम्मी अपने भार्इ यानी मलकीते के मामा के पास बिलासपुर चली गइ थीं। वहीं मामा के होटल में मलकीते मदद करने लगा था।
स्टेशन के बाहर एक शाकाहारी और मांसाहारी होटल है. shere-पंजाब होटल।
यही तो पता है उसका।
इतने दिनों बाद मिलने पर जाने वह पहचाने या न पहचानेए लेकिन मलकीते एक नम्बर का यार था उसका!
यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ाइ के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोर्इ। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आंसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोइ जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तन.कामी होना चाहिए।
लकीर का फ़कीर आदमी का जीना मुश्किल है।
जैसा देस वैसा भेस...
कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोइ न कोइ राह अवश्य निकल आएगी।
इसीलिए तो वह अम्मी.अब्बू घर.द्वार भाइ.बहिन रिश्ते.नाते आदि के मोह में फंसा नहीं रहा।
अपना रास्ता स्वयं चुनने की ललक ही तो है कि आज वह लगातार जलावतनी का दर्द झेल रहा है।
इसी उम्मीद में कि इस बार की छलांग से शायद अल्लाह की बनाइ इत्ती बड़ी कायनात में उसे भी कोइ स्वतंत्र पहचान
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