मेरी कहानिया इस ब्लॉग की नज़र हैं.
ताकि सनद रहे...वक़्त ज़ुरूरत काम आये...
वरना बकौल ग़ालिब --
"आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
"कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक....!"
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मंगलवार, 13 नवंबर 2012
दो पाटन के बीच
उपन्यास अंश
दो पाटन के बीच
अनवर सुहैल
आटा-चक्की के कानफाड़ू 'खटपिट खटपिट' का शोर सलमा का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। सलमा को जीवन की राह की तमाम दिक्कतों और परेशानियों से दो-चार होने में बड़ा मज़ा आता है।इसीलिए सलमा ने आटा-चक्की के बेसुरे 'खटपिट खटपिट' को एक ताल का रूप दे दिया और मन ही मन उस ताल पर एक गीत बना लिया है....'खटपिट खटपिट... खटपिट खटपिट....
सलमा खटती, दिन-भर खटती
कभी न थकती, कभी न थकती'
इसी लय में डूबती-उतराती सलमा अपने तन-मन की ज़रूरतों से आजकल बेख़बर रहती है।आटा-चक्की के साथ कब वक्त गुज़र जाता, सलमा जान न पाती। अल्लाह ने उसे इस काम में इतनी बरकत दी थी कि न कभी गेहूं ख़त्म होता और न कभी काम...जिसे गेहूं महीन पिसवाना हो वह महीन पिसवाए और जिसे मोटा चाहिए वह मोटा पिसवा ले...
सलमा अपने ग्राहकों की फ़रमाईश दिल लगाकर पूरा करती ताकि मुहल्ले के लोग उसकी चक्की पर ही गेहूं पिसवाएं। सलमा ने चक्की के बाईं ओर रखी गेहूं की थैलियों की लाईन पर निगाह डाली। सोलह-सत्रह थैलियां। कुछ प्लास्टिक की बोरियां, कुछ कनस्तर और कुछ गेहूं भरे बोरे...आखिरी वाली थैली के पीछे एक मोटा सा चूहा झांक रहा था। सलमा ने चूहे को घुड़की दी। चूहा ठहरा ढीठ, सलमा को टुकुर-टुकुर ताकने लगा, जैसे उसका जन्मसिध्द अधिकार हो। तब सलमा ने आटा ठूंसने वाला मुगदर चूहे की तरफ़ फेंक मारा। चूहा सरपट भाग गया। आटा-चक्की में चूहे आएं भी क्यों न!
चक्की बिठाने को बिठा ली थी सलमा ने, लेकिन आज तक उसके पास इतने पैसे न जुटे कि वह अंदरूनी दीवारों पर प्लास्तर करवा सके। दीवारों पर ईंट की जुड़ाई सीमेंट की जगह मिट्टी से की हुई है। चूहों, खटमलों और कनखजूरों के लिए तो जैसे स्वर्ग हों ऐसे घर...आटा-चक्की में कई तरह की चीज़ें पिसने आती हैं। चूहों के पास स्वाद बदलने के बहुत विकल्प थे।चूहे चाहे तो गेहूं पर हाथ साफ करें, या चने पर या मकई पर।
इसीलिए सलमा लोगों की थैलियों पर लाया गया गेहूं या अन्य सामान तत्काल पीस दिया करती। वह नहीं चाहती थी कि चूहों की बदमाशियों का खामियाजा उसे या उसके ग्राहकों को भुगतना पड़े। मुहल्ले की एकमात्र आटा-चक्की है ये। लोग गेहूं, मकई, चना और चावल आदि सलमा की चक्की में पिसवाते हैं। सलमा के पास, यदि दिन भर और काम न भी आए तो भी तीन-चार घण्टे का काम हाथ में रहता ही है। लेकिन इस बिजली कटौती का क्या किया जाए? जैसे बारह बजा नहीं कि बिजली गुल हो जाया करती है। दुपहर बारह से तीन बजे तक बिजली कटौती रहती है। अब तीन बजे के बाद बिजली आएगी, तब बाकी का काम निपटाया जाएगा। ये सोचकर सलमा ने चक्की के फीडर को थोड़ा और खोल दिया ताकि सूपड़े पर बच रहा माल जल्द पाटों के बीच आकर पिस जाए।
खटपिट खटपिट....खटपिट खटपिट....
आटा-चक्की के चलने से ऐसी ही आवाज़ उठती है।सलमा कभी भी 'बोर' नहीं होती।लेकिन सलमा ऐसे खुश भी नहीं होती।सलमा वक्त-बेवक्त रोती-सिसकती नहीं।अपनी चालीस साल की उम्र में उसने जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर बेरोक-टोक दौड़ने की सलाहियत पैदा कर ली है। वह जानती है कि इस संसार में, हर आदमी अपना 'सलीब' खुद ढोने के लिए अभिशप्त है।बाकी के रिश्ते-नाते सब संयोग मात्र हैं...ये महज़ एक इत्तेफ़ाक है कि कोई किसी की मां है, कोई किसी का बाप। संयोगवश कोई किसी का भाई है, कोई बहिन...
दुनिया में जो कुछ भी दिखलाई देता है, सब संयोग ही तो है। क्या हमने चाहा था, कि हम इस संसार में आएं...जब हम अपनी मर्ज़ी से आए नहीं, तब इस दुनिया से शिकवा कैसा? सलमा को लता मंगेशकर का गाया एक गीत बहुत भाता है :
'दुनिया में जो आए हैं तो जीना ही पड़ेगा
जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा'
सलमा बिना किसी गिला-शिकवा के अपनी बहनों और बूढ़े अब्बू की अभिभावक है।वह चाहती कि सोने के घण्टों के अलावा वह सारा दिन खटती रहे। इतना खटे कि थक कर चूर हो जाए।ताकि रात एक भरपूर नींद की मालकिन बने।एक ऐसी नींद, जिसमें किसी तरह के ख्वाब न हों। अच्छे या बुरे कैसे भी ख्वाब देखना नहीं चाहती सलमा।सलमा जानती है कि भरपेट लोगों को ही ख्वाब बुनने और चुनने का हक़ है। जिनके हिस्से में हर दिन कुंआ खोद कर पानी पीने का अभिशाप हो उनके लिए अच्छा ख्वाब क्या अहमियत रखता है।
'मैं तन्हा था, मैं तन्हा हूं
तुम आओ तो क्या न आओ तो क्या?'
सलमा ने बड़ी बेदर्दी से अपने सपनों का गला घोंटा है।व्ह चाहती है कि इसी तरह निरंतर खटती रहे।लेकिन इस बिजली की कटौती का क्या किया जाए? इस बार तो सरकार इसी वादे के कारण बनी थी कि हर नगर-गांव को बिजली की भरपूर खेप दी जाएगी। सत्ता पाते ही अपने वादे भूल जाते हैं ये नेता-परेता। पहले की तरह बिजली की कटौती ज़ारी है।दुपहर के ठीक बारह बजे लाईट चली जाती है।आदमी चाहे तो घड़ी मिला ले।
हुआ भी वही, बारह बजे नहीं कि बिजली चली गई।अभी चक्की के सूपे में आधा माल अनपिसा ही रह गया था।हज्जन बीबी के घर का आटा था।अब तीन बजे के बाद जब लाईट आएगी, तभी काम हो पाएगा।हज्जन बीबी की नौकरानी आती होगी। कह रही थी कि सलमा बीबी बड़ी 'मरजेंसी' है, झट् से पीस देना। हज्जन बीबी बड़ा घुड़कती हैं।काम अधूरा जानकर वह ज़रूर चार बात सुनाएगी तो सुनाती रहे।सलमा पावर-हाउस की मालकिन तो नहीं,, और न कोई जिन्न-परी उसके बस में है कि बिना बिजली के आटा पीस दे।जिसे सलमा की चक्की में गेहूं पिसवाना हो पिसवाए वरना जहां जाना हो जाए। सलमा ने सोचा कि अब थोड़ा घर के अंदर की भी सुध ली जाए। बहनों ने कुछ किया भी है या सिर्फ लड़ाई-झगड़ा, बनाव-सिंगार में दिन गुज़ार दिया है।उसने दुकान के बाहर बैठे अब्बू पर निगाह डाली।
अब्बू धूप की सेंक का आनंद ले रहे थे।
कौन सा दिल है जिसमें दाग़ नहीं
बाहर धूप में, फाईबर की कुर्सी पर आराम से अब्बू बैठे हुए हैं। उनकी पीठ पर कुनकुनी धूप पड़ रही है। अब्बू के पतले-दुबले बदन पर अम्मी के हाथों बुना बीसियों साल पुराना स्वेटर है। पहले उस स्वेटर का रंग बैंगनी हुआ करता था। अब वह मटमैली रंगत का हो चुका है।अब्बू बुत बने से धूप की सेंक का आनंद ले रहे हैं। ठंड के दिनों अब्बू की तबीयत नरम-गरम रहा करती है। अब्बू इसीलिए रोज़ाना नहीं नहाया करते।
जुम्मा की नमाज़ भले वह अदा न करते हों, लेकिन जुम्मा के जुम्मा ज़रूर नहाते हैं। सलमा है कि ज़िद करके उनकी बनियान और लुंगी प्रतिदिन धो दिया करती है। अब्बू का मन करे तो वह महीनो कपड़े न बदलें। अब्बू की मैल से चीकट हुई बनियान धोते सलमा चिड़चिड़ा जाती-''चिल्लर पड़ गए कपड़ों में अब्बू, तुम नहाओ न नहाओ, एक-दो दिन के बीच लुंगी-गंजी तो धुलवा लिया करो।''अब्बू हंस देते और बड़ी मुहब्बत से उसे निहारने लगते।
जाड़े के मौसम में अब्बू दुपहर में खाना खाने से पहले हाथ-मुंह मिज़ाज से धोया करते। इसके लिए सलमा सुबह धूप में एक बाल्टी पानी रख दिया करती। बारह-एक बजे तक बाल्टी का पानी धूप की सेंक पाकर कुनकुना-गर्म हो जाता। अब्बू उसी पानी से हाथ-मुंह धोते।सलमा को अपने अब्बू पर दया आया करती है। कितने कमज़ोर हो गए हैं अब्बू।
किसी से कुछ नहीं कहते। बस सड़क पर आते-जाते लोगों को ख़ामोशी से ताकते रहते हैं। नगर के जिस इलाके में उनका घर है, उसे इब्राहीमपुरा के नाम से जाना जाता है।
इब्राहीमपुरा यानी 'मिनी पाकिस्तान'।
ये तो सलमा ने बाद में जाना कि हिन्दुस्तान में जहां-जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा है उस जगह को 'मिनी-पाकिस्तान' का नाम दे दिया जाता है।नगर में जहां हिन्दू आबादी ख़त्म होती है, इब्राहीमपुरा की बस्ती षुरू होती है। सलमा की चक्की एक तरह से सीमा पर स्थित है। उसकी चक्की के सामने जो सड़क निकलती है वह राम-मंदिर से आती है। रास्ते में बैंक और पोस्ट-ऑफिस है। फिर सब्जी-बाज़ार, उसके बाद बदबूदार मीट-मछली के अड्डे और उसके बाद इब्राहीमपुरा की सीमा। ये सड़क जाकर बड़ी मस्जिद पर ख़त्म होती है।
सलमा की चक्की के पास ही बब्बन कस्साब की दुकान है। जहां सुबह सात बजे से रात आठ बजे तक बकरे का गोष्त मिल जाता है। बब्बन कस्साब के बगल में उसके छोटे भाई झब्बन की और सुल्तान भाई की बॉयलर मुर्गी और अण्डे की दुकान है। भरत कुर्मी और कुर्बान अली की मछली की गुमटियां भी उसी लाईन में है। सलमा को याद है कि उसकी हिन्दू सहेलियां इब्राहीमपुरा आने से डरती थीं। उन्हें लगता था कि मांसाहारी मुसलमान लोग आदमख़ोर भी हुआ करते हैं। संस्कृत पढ़ाने वाले उपाध्याय सर तो क्लास-रूम में सरेआम कहा करते थे कि ये मुसल्ले बड़े गन्दे होते हैं। सप्ताह में एक बार नहाते हैं, जुम्मा के जुम्मा। इनके घरों में अण्डा, मछली, मांस पकता है। इनके मुहल्ले में बड़ी गंदगी होती है।
कई घरों के सामने बकरे-बकरियां बंधी होती हैं जो चौबीस घण्टे मिमियाती रहती हैं। मेंगनी करती और मूतती रहती हैं। मुर्गे-मुर्गियों की तो पूछो ही मत। इन सबके बीच ये मुसलमान अपने दिन-रात गुज़ारते हैं।इनके दिल में तनिक भी दया नहीं होती।ये जिस जानवर को बड़ी शान से पालते हैं, फिर उसी की गर्दन पर इत्मीनान से छुरी फेरते हैं।राम-राम, कितने निर्दयी होते हैं ये मुसल्ले...मुसलमानों में औरतों की कोई इज्ज़त नहीं।
औरतें अक्सर बीमार रहा करती हैं। हर साल बच्चे पैदा करना मुसलमानों का मज़हब है। इसीलिए मुसलमानों के मुहल्ले में बच्चों की बड़ी तादाद होती है। न जाने क्यों मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। नंगे-अधनंगे गंदे बच्चे गली-मुहल्ले में छितराए रहते हैं। बच्चों और औरतों के बदन में कपड़ा हो न हो, लेकिन इन मुसलमानों की रसोईयों में मांस ज़रूर पकना चाहिए।
जब अपने लिए पाकिस्तान मांग ही लिया फिर यहां काहे जगह घेरने के लिए रूक गए ससुरे! कितनी कम आबादी थी इनकी यहां। नसबंदी का विरोध इन्होंने किया, क्योंकि इनके आका इन्हें बताते हैं कि आबादी बढ़ाकर अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक कैसे बना जाता है? सलमा को उसकी हिन्दू सहेलियां इन्हीं सब कारणों से चिढ़ाया करतीं। उसकी पक्की सहेली मीरा ने एक दिन सलमा से पूछा था कि तुम लोगों में लड़कों को मुसलमान बनाने के लिए खतना किया जाता है लेकिन लड़कियों को कैसे मुसलमान बनाते हैं?सलमा क्या बताती।
सलमा ने उस दिन के बाद मीरा से 'कट्टी' कर ली थी। क्या फ़ायदा ऐसी लड़कियों से दोस्ती करके। जब उन्हें उसका मज़ाक ही उड़ाना है।स्कूल में भी तो जब देखो तब पूजा-पाठ होता रहता है, क्या रखा है इस पूजा-पाठ में। क्या पत्थर के देवी-देवता या तस्वीरों को पूजने से इनका भला होगा? वह तो उनकी हरकतों पर कभी ऐतराज़ नहीं करती है। और ऐसा नहीं है कि सलमा पूजा में शामिल नहीं होती थी। उसे आरती तक याद है। चरणामृत कैसे लिया जाता है, आरती के बाद दीपक की लौ की सेंक कैसे ली जाती है, प्रसाद कैसे दाहिने हाथ के नीचे बांई हथेली रखकर ग्रहण किया जाता है। वह सब जानती है। उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान लड़की है। फिर उसके मज़हब का ये लोग क्यों मज़ाक उड़ाते हैं, सलमा समझ न पाती।सलमा जानती है कि लोग मुसलमानों से चाहे कितनी नफ़रत करें, लेकिन गाहे-बगाहे उन्हें अब्बू की शरण में आना ही पड़ता है।अब्बू के हाथ में जादू जो है।बड़ा हुनर दिया है अल्लाह-पाक ने उनके हाथों में। अपनी जवानी के दिनों में पहलवान हुआ करते थे अब्बू। उनका नाम था महमूद जो कि बिगड़कर बन गया था 'मम्दू पहलवान'।
अम्बिकापुर के नामी पहलवान बन्ने मियां की शागिर्दी की थी उन्होंने। बन्ने मियां हड्डी और नस के अच्छे जानकार थे। अब्बू ने पहलवानी से ज्यादा बन्ने मियां से हड्डी और नस की डॉक्टरी जान ली थी।हड्डियों के जोड़-जोड़ की जानकारी उन्हें है।जिस्म की तमाम नसों को अपने इशारे पर नचा सकते हैं वो। नगर के पुराने लोग अभी भी उनके पास हड्डियां बिठाने या फिर राह भटकी नसों को सीधी राह पर लाने के लिए आया करते हैं। ऐसे तमाम ज़रूरतमंद लोगों को अब्बू सुबह बुलाया करते।चाहे मरीज़ कितना भी बड़ा आदमी क्यों न हो, कुसमय इलाज नहीं करते।
ये कहकर लौटा देते-''सुबह आओ...नसों की सही जानकारी सुबह ही मिलती है।''
सलमा की नींद सुबह फजिर की अज़ान की आवाज़ से न खुल पाई तो फिर अब्बू के मरीज़ों की आमद से खुलती है।अलस्सुबह लोग चक्की वाले कमरे से लगे बाहरी कमरे की सांकल बजाते हैं।
''पहलवान'च्चा!''
या फिर 'मम्दू पहलवान हैं क्या?''
अब्बू बिस्तर से उठते नहीं। बिस्तर पर लेटे हुए सलमा को आवाज़ देते हैं-''देख तो बेटा, कौन आया है?''अब्बू की एक आवाज़ पर सलमा झटके से बिस्तर छोड़ती है। चेहरे पर दोनों हथेलियां फिराकर अंदाज़ से बाल दुरस्त करती है। फिर जल्दी से कपड़े की सलवटें ठीक करती, दुपट्टा गले पर डालते हुए चक्की के मेन-गेट पर लगे ताले को खोलने चली जाती है।
बाहर खड़े लोगों के चेहरे पर दर्द की लकीरें देख वह उन्हें अंदर आने का इशारा करती।चक्की का अंधेरा गलियारा पार कर आंगन के बाद रसोई से लगा कमरा अब्बू का है।अब्बू की चारपाई के बगल में एक स्टूल रखा है।मरीज़ उस पर बैठ कर अपना दुख बताता।
''बहुत दर्द कर रहा है ये वाला पैर, इसे ज़मीन पर रखूं तो जैसे जान निकल जाती है।''
मरीज़ ज़मीन पर पैर जमा कर खड़ा होने की कोशिश करता और उसके मुंह से कराह निकल जाती।अब्बू बिस्तर पर पड़े टुकुर-टुकुर उस मरीज़ को निहारते, कुछ नहीं कहते।
फिर लिहाफ़ हटा कर उठ बैठते। तकिए के नीचे से बीड़ी का कट्टा और माचिस निकालते। एक बीड़ी सुलगाते और फिर मरीज़ को स्टूल पर बैठने का इशारा करते।इत्मीनान से बीड़ी फूंक कर चारपाई से उठते और ज़मीन पर उकड़ू बैठ कर मरीज़ की एड़ियों को इधर-उधर घुमाते। मरीज़ दर्द से कराहने लगता। अब्बू के पतले-पतले हाथ उसके घुटने के पीछे जाकर जाने क्या करतब करते कि मरीज़ एक गहरी आह भर कर चुप हो जाता।अब्बू वापस अपनी चारपाई पर बैठ जाते और मरीज़ से कहते कि एक-दो बार पैर झटको।वह ऐसा ही करता।आश्चर्य! मरीज़ के चेहरे पर छाई दर्द की लकीरें अब नहीं दीखतीं।
मरीज़ अब्बू को बड़े आदर से देखता तो अब्बू कहते कि नस चढ़ गई थी। गरम पानी में नमक डाल कर पैरों को दो-तीन बार धो लेना। मरीज़ इलाज से संतुष्ट होकर अपनी जेब टटोलता।
अब्बू की फीस मात्र दस रूपए है। चाहे उन्हें उस हड्डी को बिठाने में एक घण्टे लग जाएं या फिर एक पल...अब्बू पैसा अपने हाथ से नहीं छूते। तकिया उठाकर इशारे से कहते कि तकिए के नीचे पैसा रख दो।मरीज़ तकिए के नीचे रूपए डाल कर बड़ी श्रध्दा से उन्हें देखता।आज के ज़माने में इतना सस्ता इलाज! कस्बे में अब तो कई लोग हैं जो इस हुनर के जानकार हैं, लेकिन मम्दू पहलवान की बात ही और है।भूले-भटके एक-दो मरीज़ हर दिन अब्बू को मिल ही जाते हैं, जिससे उनकी शाम की दारू का खर्च निकल आता है।
सलमा के ख़ानदान की मुहल्ले में कोई क़द्रो-क़ीमत नहीं है। इसका कारण सलमा जानती है। जैसे कि अब्बू की पियक्कड़ी, अम्मी और मौलाना के क़िस्से, सलमा का घिनौना अतीत...वैसे इस ज़माने में दूध का धुला कोई नहीं। हरेक चादर दाग़दार है आजकल, लेकिन धन-दौलत का पर्दा बदनामियों को ढंक लेता है और ग़रीबों की बदनामियां जंगल की आग बन कर फैल जाती हैं। सलमा जानती है कि इस हमाम में सभी नंगे हैं....
कौन सा दिल है जिसमें दाग़ नहीं!
बस, ज़माने का दस्तूर यही है कि जो पकड़ाए वही चोर....
अपनी हिम्मत है, हम फिर भी जिए जाते हैं
क्या है कि अपने धुन की पक्की सलमा किसी की परवाह नहीं करती।उसने अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में बड़े अनुभव बटोरे हैं। उसने संसार की कई ऐसी हक़ीक़तें जान लीं थीं, जिनके लिए एक इंसान को कई-कई जन्म लेना पड़े।
मसलन सलमा जानती है कि लड़के और लड़कियों में फर्क है। लड़कियां दब्बू, शर्मीली, डरपोक, वाचाल, बनावटी और कमज़ोर सी होती हैं जबकि इसके बरअक्स लड़के दबंग, बिंदास, निडर, उद्दण्ड, शातिर और जिस्मानी तौर पर मज़बूत होते हैं। लड़कियों में आत्मविश्वास की कमी होती है जबकि लड़के असम्भव से काम भी करने का प्रयास करते हैं।लड़कों की श्रेष्ठता के पीछे कोई आसमानी-वजह नहीं है।
जन्म से ही लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज्यादा प्यार-दुलार, पोषक-आहार, उचित देख-भाल, सहूलियतें और आज़ादी मिलती है। लड़के पूरे परिवार की आंख का तारा होते हैं और लड़कियां आंख का कीचड़ नही तो और क्या होती हैं?इसीलिए तो लड़कों में आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा रहता है।
बचपन में भकुआए से भोंदू दिखने वाले लड़के बड़े होकर कितनी जल्द राज करना सीख जाते हैं और ज़िम्मेदारियां उठाती वाचाल लड़कियां बड़ी होकर कांच के सामान की तरह हो जाती हैं, जिन्हें बड़ी होशियारी से इस्तेमाल किया जाता है कि कहीं टूट न जाएं। सलमा ने अपने अनुभवों से जान लिया था कि ये संसार एक प्रयोगशाला है, जहां इंसान ग़ल्तियां कर-करके सीखता है, क्योंकि जीना एक कला है और विज्ञान भी। इसमें लड़की या लड़के में कोई अंतर नहीं होता।सलमा अच्छी तरह जानती है कि अच्छे-अच्छे तुर्रम ख़ाँ, भूख और ग़रीबी के आगे मात खा जाते हैं।
अच्छे-अच्छे विवेकवान लोग अभाव की चक्की में पिस कर कुंद हो जाते हैं। ऐसे हालात का मारा इंसान, हराम-हलाल, पाप-पुण्य और स्वर्ग-नर्क की बातों को ठेंगे पर रखकर किसी तरह अपना जीवन बसर करता है।ये नहीं सोचता कि जो उसके हिस्से में आई रोटी, हराम की कमाई है या हलाल की।
गर्म तवे पर पानी की बूंद डालो तो छन्न से ग़ायब हो जाती है।गरीब का आवष्यकताएं गर्म तवे की तरह होती हैं, जिसमें सुविधाओं के छींटे पड़ते ही ग़ायब हो जाते हैं। इन्हीं घनघोर अभावों से दो-चार होती सलमा कब सयानी हो गई, वह जान न पाई। उसे हालात ने सयाना कर दिया था। वह अभी दस साल की ही थी कि उसकी अम्मी घर छोड़कर चली गई।अब्बू उस सदमे को झेल न पाए और नीम-पागल हो गए।यदि दारू का सहारा न होता तो कब के मर-बिला गए होते अब्बू।सलमा घर में बड़ी थी।
सलमा बाहरी दुनिया के छल-प्रपंच से अन्जान तो थी, लेकिन असावधान नहीं थी। जीने के लिए उसने अपने स्तर पर कई तरह के चांस लिए।
एक भोली-भाली लड़की से किशोरी और फिर युवती बनने का सफर, जोखिम भरे रास्तों पर, तने-तन्हा तय किया था सलमा ने।पहले-पहल तो वह बहुत हताश रहा करती थी। फिर ज़माने की ठोकरों से उसने जान लिया कि औरत को अल्लाह ने मर्दों की तुलना में एक अतिरिक्त कुदरती औजार दिया है। जिस्म का हथियार।जिसे जब चाहे औरत इस्तेमाल कर अपनी ज़रूरतें पूरी कर सकती है...चाहे तो दौलत का अंबार लगा सकती है।
जिसके पास दौलत नहीं उसके लिए कैसा घर, कैसा दर, कैसा समाज, कैसा वतन...एक बार दौलत पास आ जाए, फिर संसार में और कोई मुश्किल नहीं!
तिरिया-चरित्तर उर्फ धोखा ही धोखा
अब्बू इतने कमज़ोर पहले न थे। चक्की के बाहर कुर्सी डाले बैठे-बैठे बीड़ी फूंकते रहते हैं और शाम गहराते ही दारू पीने के चक्कर में भट्टी की तरफ चले जाते हैं।अब यही उनका शगल है।जब से अम्मी ने अब्बू का दामन छोड़ा अब्बू की ये हालत हो गई है।
सलमा की छोटी बहन रूकैया एकदम अम्मी पर गई है। वैसे ही साफ रंगत, पानीदार चेहरा, कटीली आंखें, भरे-भरे गाल!अब्बू जब भी रूकैया को देखते सर्द आहें भरा करते।अम्मी थीं भी रूई के फाहे जैसी नर्म-मुलायम और किसी शाहज़ादी जैसी नफ़ासत-नज़ाकत से लबरेज़। कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक मामूली आटा-चक्की चलाने वाले के घर इतना क़ीमती ज़ख़ीरा होगा। अम्मी की पुरानी फोटो जब कभी सलमा देखती तो उसे एकदम फ़रीदा जलाल याद आती। अम्मी के गाल पर फ़रीदा जलाल जैसे डिम्पल बनते थे।
बदनसीब अब्बू के पास सिवाए ग़रीबी और भुखमरी के और कोई दौलत न थी। यही ग़रीबी उनके सुख-चैन की दुश्मन बनी।अब्बू हाजी जी की आटा चक्की में मुलाज़िम हुआ करते थे। हाजी जी पुराने मुलाजिम थे। चक्की की रिपेयर खुद से कर लिया करते थे। हाजी जी की चक्की में कई तरह के काम होते थे। उनके पास धान कूटने की, तेल पेरने की, मसाला पीसने की और अब चाहे वह धान से चावल निकालने वाली चक्की हो, तेल पेरने वाली चक्की हो या फिर गेहूं, मसाला आदि पीसने वाली चक्की। अब्बू चक्की में लगने वाले भारी गोलाकार पत्थर की टंकाई का काम खुद किया करते थे। उनके पास छोटी-छोटी धारदार कई तरह की छेनियां थीं और कई हथोड़ियां भी थीं। हाजी साहब अब्बू को बहुत मानते थे। ईद-बकरीद के मौक़े पर बख्षीश बतौर सलमा के सारे परिवार के लिए कपड़े हाजी जी के घर से आया करते थे। छोटी-छोटी खुशियों के साथ ज़िन्दगी के दिन ठीक ही गुज़र रहे थे।फिर भी जाने क्यों अम्मी का दिल उस घर में नहीं लगता था।तीन-तीन बेटियां जनने के बाद भी अब्बू उनसे बेइंतेहा प्यार करते थे। उन्हें किसी किस्म की तकलीफ न हो इसका पूरा ध्यान रखते थे। अब वह चाहे कपड़े धोना हो, या बाहर से पानी लाना या फिर बच्चों के पोतड़े धोना। अब्बू अम्मी को पूरा आराम देते और सारे काम खुद ही निपटा दिया करते थे। जब सलमा बड़ी हो गई तो उसने भी अब्बू का हाथ बटाना षुरू कर दिया था।
जब-तब अब्बू सुबह की रोटियां खुद ही बना-खाकर काम पर चले जाते थे। वह नाहक अम्मी को आवाज़ लगाकर जगाते न थे। अम्मी के अंदर फुर्ती का अभाव था।वह बेहद आलसी थीं।पानी-पानी चिल्लाती पड़ी रहती थीं लेकिन खुद उठकर एक गिलास पानी नहीं पी पाती थीं। हां, इसका मतलब ये नहीं कि वह आलसी थीं तो खुद को गंदा रखती होंगी। ऐसा क़तई न था। अम्मी सुबह जब भी उठतीं, बिस्तर पर ही छोटे आईने में अपना चेहरा ठीक करतीं।
फिर नित्य-कर्म से फुर्सत पाकर आंगन वाले बड़े आईने के सामने खड़े होकर अपने लम्बे बालों पर कंघी करतीं और चेहरे पर सस्ता पाउडर लगातीं। आंखों पर सुरमा डालतीं। सलमा पर अम्मी हमेशा गुस्सा किया करतीं कि सलमा उनकी लिपिस्टिक को बरबाद कर दिया करती थी। फिर जब सुरैया थोड़ी जानकार हुई तो वह भी लिपिस्टिक-पाउडर की दुश्मन हुआ करती थी।
सलमा के जेहन में हल्की सी याद है उस नामुराद मौलाना क़ादरी की, जिसने अम्मी को अपने वाग्जाल में फंसाया था। मौलाना क़ादरी जब से उस क़स्बे में आया, लोगों का जीना मुहाल कर दिया था...बात-बे-बात जामा मस्जिद के बड़े हाफिज्जी की ग़ल्तियां निकाला करता था और उन्हें नीचा दिखाया करता था। वह चाहता था कि मस्जिद में बड़े हाफिज्जी की इज्ज़त कम हो जाए। किसी तरह उसकी धाक जम जाए तो फिर पौ बारह...
बड़े हाफिज्जी दीनो-मजहब के बड़े जानकार थे। उनका जीवन परहेज़गारी का नमूना था। वे बड़े संयमी और सुलझे हुए इंसान थे। जाहिल मुसलमानों को नमाज़ और रोज़े की पाबंदी के लिए हमेशा इस्लाह किया करते थे। वे इंसानी जिन्दगी के तमाम मसाईल का हल नमाज़ के ज़रिए निकालने की समझाईश दिया करते थे। वे चाहते थे कि मुसलमान अपने काम से समय निकाल कर दिन में पांच बार खुदा को याद करे।
वे गण्डा-तावीज़, झाड़-फूंक आदि से जाहिल मुसलमानों को बरगलाया नहीं करते थे। वे कहते थे कि बीमार पड़ने पर अल्लाह से रहम की भीख मांगो। ठीक न हो तो फिर कस्बे के डॉक्टर के पास ले जाओ। इंशाअल्लाह शिफ़ा मिलेगी...बड़े हाफिज्जी अक्सर अपनी तकरीरों में कहते कि अल्लाह को पाने के लिए कोई आसान नुस्खा नहीं है। इसके लिए जितनी इबादत की जाए कम है। इंसान को ज्यादा से ज्यादा समय अल्लाह की गुणगान करना चाहिए और बुराईयों से बचना चाहिए।
पांच-छह सौ मुसलमानों की ऐसी बस्ती का इकलौता धर्मगुरू बनने का ख्वाब मौलाना क़ादरी को सताया करता था। मस्जिद के रख-रखाव और इमाम-मुअज्जिन की तनख्वाह वग़ैरा के लिए बस्ती के मुसलमान चंदा दिया करते थे। बड़े हाफिज्जी की देख-भाल में मस्जिद के सहन में एक मदरसा भी चलाया जाता था जिससे बच्चों की दीनी-तालीम मिल जाती थी।
इसका मतलब ये था कि यदि मौजूदा बड़े हाफिज्जी को उखाड़ फेंका जाए तो मौलाना क़ादरी के दिन फिरते देर न लगे। इसीलिए मौलाना क़ादरी, बड़े हाफिज्जी के ख़िलाफ़ अवाम को भड़काया करता और अपना उल्लू सीधा किया करता था।कम पढ़े-लिखे, धर्म-भीरू, आस्थावान आदमियों और जाहिल औरतों को मौलाना क़ादरी उकसाया करता कि नमाज़-रोज़ा से कुछ नहीं हासिल होता। दोनो जहान में निजात पाने के लिए किसी भी तरह अपने घरों में मीलाद-शरीफ की महफिल सजाओ तो बरकत टपके।
मीलाद-शरीफ के आयोजन का मतलब था कि कम से कम चार-पांच सौ रूपए की चपत। मीलाद-शरीफ के खात्मे पर बांटी जाने वाली शिरनी (प्रसाद) लाओ। इत्र-फुलेल, अगरबत्ती की व्यवस्था करो। माईक-बाजा लगवाओ। मीलाद के बाद खाने की दावत न दो तो लोग नहीं जुटते। खाली मिलाद सुनने क्यों आएं लोग। सो तीस-चालीस आदमियों के लिए गोष्त-पुलाव-ज़र्दा का बंदोबस्त?मीलाद-शरीफ पढ़ने का नज़राना कम से कम एक सौ एक रूपए मौलाना क़ादरी के लिए...मैलाना क़ादरी की आवाज़ बड़ी दिलकश थी। वह जब नात-शरीफ़ पढ़ते तो लगता जैसे मुहम्मद रफी बिना संगीत के गीत गा रहे हों।
उनके अधिकांश नातों की तर्ज पुराने फिल्मी गानों की पैरोडी टाईप हुआ करती थीं-सलमा जानती है वे गाने जिन की धुन पर मौलाना क़ादरी नात तैयार करते थे।जैसे, 'गुज़रा हुआ ज़माना, आता नहीं दुबारा, हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा', 'सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा', या 'मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए' आदि गानों की तर्ज़ पर नात तैयार की जाती थीं, जो सुनने में बड़ी मधुर लगतीं।इसीलिए गरीबी-बेकारी और अशिक्षा से जूझते बस्ती के मुसलमानों में उनके नातिया कलाम लोकप्रिय होने लगे थे।
अम्मी अक्सर मौलाना क़ादरी के नातिया कलाम को गुनगुनाया करतीं। मौलाना क़ादरी अब्बू से मिलने एक बार सलमा के घर आए। अब्बू तो काम पर गए थे। सलमा तब छोटी थी।उसने तो मौलाना क़ादरी को ये कह कर टरकाना चाहा था कि अब्बू काम पर गए हैं, लेकिन अम्मी ने कहा कि मौलाना को टपरिया में बिठाओ।तब आंगन और सड़क के बीच में जहां आज चक्की है, वहां पर टट्टर से घेर कर खपरैल की छप्पर वाली एक बैठकी बनाई गई थी। अब्बू उसे टपरिया कहा करते थे।उसमें एक चारपाई डली रहती थी।
अब्बू को बकरियां पालने का षौक़ था, और रात में बकरियां उसी जगह बांधी जाती थीं।मौलाना क़दरी टपरिया में बिछी चारपाई पर आ बैठे। नन्ही सलमा ने ग़ौर किया कि उनकी निगाहें उसे घूर कर देख रही हैं। जाने क्यों सलमा को वह अच्छे आदमी नहीं लगे। गर्मियों के दिन थे। सुबह के दस-ग्यारह बजे होंगे, लेकिन लगता ऐसे था जैसे दुपहर के दो बज रहे हों। गर्मी बेहद थी। मौलाना क़ादरी कंधे पर डाली गई हरे-सफेद चौखाने वाले गमछे से पंखा करने लगे। उनकी निगाहें बार-बार झोंपड़ी के अंदर का जाएज़ा लेती दिखलाई पड़ रही थीं। अम्मी उस समय आंगन के कोने में बोरे से घेर कर बनाए गए गुसलखाने में नहा रही थीं।
अम्मी की एक बहुत ही गंदी आदत थी, जिससे सलमा को काफ़ी चिढ़ हुआ करती थी। होता ये था कि अम्मी जब भी गुसलखाने से नहाकर बाहर निकला करतीं, उनके गीले जिस्म पर सिर्फ लहंगा और ब्लाउज़ हुआ करता था। सीने पर वह गीला गमछा डाल कर गुसलखाने से झोंपड़ी की तरफ लगभग भागते हुए घुसा करती थीं। इतने कम समय में भी उनकी नारी-देह की भरपूर नुमाईश हो जाया करती थी। उस दिन भी ऐसा ही हुआ।
अम्मी को जबकि मालूम था कि बाहर टपरिया में मौलाना क़ादरी आकर बैठे हुए हैं। फिर भी वे गुसलखाने से अपने उघड़े जिस्म को सहेजते भागती हुई झोंपड़ी के अंदर घुसीं, लेकिन मौलाना क़ादरी की निगाहों को देर तक सलमा ने उस रास्ते का जायज़ा लेते पाया।
कपड़े पहन कर, अपने गीले बालों पर गमछा लपेटे अम्मी जब बाहर आईं तो बला की ख़ूबसूरत लग रही थीं। गर्मी की शिद्दत से मौलाना बेचैन थे।अम्मी ने मौलाना क़ादरी की अच्छी ख़िदमत की थी।
अम्मी ने सलमा को नींबू का शर्बत बना लाने को कहा।
पता नहीं अम्मी और मौलाना क़ादरी में क्या-क्या बातें होती रही थीं। मौलाना क़ादरी फिर अक्सर उनके घर आने लगा। अब्बू सुबह काम पर निकलते तो फिर देर रात घर वापस आते। अगर काम का दबाव ज्यादा रहा तो फिर पूरी रात घर न आते। मौलाना क़ादरी आते तो जाने क्यों नन्हीं सलमा को बहुत बुरा लगता था।
लगता भी क्यों न! वह बच्ची थी तो क्या अच्छाई-बुराई की कुदरती समझ तो हर उम्र में इंसान को होती है।मौलाना क़ादरी ने एक दिन उसे बड़े प्यार से अपने पास बुलाया था।वह शर्माते-शर्माते उनके पास गई।
मौलाना ने उसे अपनी गोद पर बिठाया और उसके गाल को चूमा।सलमा ने झट से अपने गाल साफ किए। मौलाना ने उसके गाल पर थूक लगा दिया था। सलमा को इस तरह प्यार करने वाले इंसान क़तई पसंद न थे। वह तत्काल उनकी गोद से उछलकर भाग गई थी।
मौलाना क़ादरी गोरे-चिट्टे थे। चेहरे पर तराशी गई खूब घनी काली दाढ़ी। हल्की मूंछें। सर पर काली टोपी। गरदन तक लहराते बाल। कपड़े बड़ी नफ़ासत वाले। चेहरे पर सेहतमंद मुस्कान। किसी तरह के तनाव के कोई निशानात नहीं। चिन्ता-फ़िक्र से आज़ाद बिन्दास शख्सियत। दीनदार लोग ऐसे चेहरे को देख कह ही बैठें कि सुबहानल्लाह! बेशक, अल्ला-वालों का चेहरा ऐसा ही नूरानी हुआ करता है। सलमा की अम्मी कब मौलाना की दीवानी बन गईं उन्हें पता न चला...
सलमा को वो दिन आज भी याद है जब उसने अपनी अम्मी और मौलाना क़ादरी को अन्दर वाले कमरे में अब्बू के बिस्तर पर गुत्थम-गुत्था देखा। अम्मी नीचे दबी हुई थीं। मौलाना अम्मी पर सवार थे। अम्मी के गले से दबी-दबी ऊ... आं... की आवाज़ें निकल रही थीं। वो माज़रा देख सलमा डर गई।
वह शबे-बरात का दूसरा दिन था।उसकी समझ में जब कुछ न आया तो वह दौड़ी-दौड़ी हाजी साहब की चक्की जा पहुंची। वहां अब्बू तेल पेरने वाली मशीन से डोरी का तेल निकाल रहे थे। सलमा को आया देख उन्होंने मशीन का स्विच ऑफ किया और सलमा को अपने पास बुलाया।सलमा की सांसें फूली हुई थीं।
उसने फुसफुसाते हुए अब्बू को घर का आंखों देखा हाल कह सुनाया।
अब्बू भागे-भागे सलमा के साथ घर आए।देखा कि सुरैया और नन्हीं रूकैया आंगन में एक चारपाई पर सोई हुई हैं और झोंपड़ी का दरवाज़ा भिड़का हुआ है।अब्बू ने दबे पांव दरवाज़ा खोला तो भीतर का हाल देख दंग रह गए।अम्मी को काटो तो खून नहीं और मौलाना क़ादरी झटपट कपड़े उल्टे-सीधे पहन भाग लिए।
अब्बू कहें तो कहें किससे।उन्हें ज़बरदस्त सदमा पहुंचा। वे फिर कई दिनों चक्की नहीं गए।
अम्मी और अब्बू में बोल-चाल बंद हो गई।उधर एक दिन सलमा बाहर खेल रही थी कि उसे मौलाना क़ादरी दिखलाई दिए।सलमा ने देखा कि अम्मी घर के बाहर टपरिया तक आई हैं। फिर मौलाना क़ादरी और अम्मी में जाने क्या बातें हुईं वह जान न पाई।उसने सोचा था कि वह अब्बू को इस मुलाक़ात के बारे में बताएगी, लेकिन वह खेल की धुन में भूल गई।
सलमा को याद है कि उस रात अम्मी ने बड़े शौक़ से खाना बनाया था।घर में कुछ ख़ास था नहीं, हां, आलू की रसेदार सब्ज़ी में अम्मी ने आमलेट के टुकड़े तैरा दिए थे। आमलेट जब शोरबे में तर हो जाता है तो बहुत अच्छा लगता है। अपनी दोनों बहनों के साथ सलमा ने बहुत चटख़ारे लेकर उस सब्ज़ी को खाई थी।
सुबह उसे अब्बू ने जगाया और अम्मी के बारे में पूछा, तो सलमा उनींदी क्या बताती?
उसने सोचा कि अम्मी शायद टहलने गई हों, कुछ देर में आ जाएंगी। सूरज आसमान पर चढ़ता गया लेकिन अम्मी न आईं। सुरैया और रूकैया अम्मी-अम्मी की रट लगाकर खूब रो रही थीं। सलमा ने अब्बू के कहने पर मुहल्ले में आस-पास अम्मी को खोज देखा। कुछ पता न चला।दुपहर को जुहर की अज़ान के वक्त अब्बू घर आए।उनके क़दम लड़खड़ा रहे थे।
उन्होंने पी रखी थी।सलमा उन्हें देख कर रो पड़ी।उसे अम्मी की याद सता रही थी।अम्मी जाने कहां चली गई हैं।अब्बू लड़खड़ाती ज़ुबान से अपनी बीवी को गाली बक रहे थे, साथ-साथ मौलाना क़ादरी की दइया-मइया एक किए हुए थे।तब जाकर नन्हीं सलमा को समझ में आया कि अम्मी का चक्कर क्या है?
उसने अब्बू को बताया भी कि अब्बू, कल दुपहर के समय मौलाना क़ादरी अम्मी से मिलने आए थे।अब्बू ने उसे घूर कर देखा था, फिर वह निढाल होकर टपरिया पर पड़ी चारपाई पर पसर गए थे।सलमा उस दिन अचानक एक ज़िम्मेदार औरत में तब्दील हो गई थी।वह लकड़ी का चूल्हा सुलगाकर काली चाय बनाना जानती थी।उसने सुरैया और रूकैया को चुप रहने का इशारा किया और रसोई में जा घुसी थी।बड़ा अजीब लगा था बिना अम्मी के रसोई-घर...चूल्हा अम्मी रात ही साफ़ करके गई थीं।
उसने एक कोने में रखा आटे का कनस्तर टटोला। उसमें आधा कनस्तर आटा था। फिर उसने चूल्हे के पास रखे कई डिब्बों को खोलकर देखा। किसी में शक्कर, किसी में चायपत्ती, किसी में नमक और किसी में गरम मसाला था।
उसने आटा माड़ने वाली थाली लेकर पहले अंदाज से आटा गूंथ लिया। फिर लकड़ी सुलगाने लगी कि अब्बू आ गए। वह माथा पकड़ कर वहीं सलमा के पास पीढ़े पर बैठ गए।आग सुलग जाने पर सलमा ने तवा चढ़ाकर उसे गर्म होने दिया।सुरैया और रूकैया तब तक उसके पास आ चुकी थीं
रूकैया तो अब्बू की गोद में दुबक गई, लेकिन सुरैया अपने नन्हे-नन्हे हाथों से आटे की लोई बनाने लगी।सलमा ने बेलन-चौकी पर रोटी जो बेलनी षुरू कीं तो पतली-मोटी, टेढ़ी-मेढ़ी रोटियां फटाफट बनने लगीं।पहली रोटी उसने शक्कर के साथ रूकैया को खाने को दी।
अब्बू ने रोटी के अंदर शक्कर भरकर उसका 'रोल' बना दिया।रूकैया मरभुक्खों की तरह दांत से काट-काट कर गपागप रोटी खाने लगी तो अब्बू कीआंखों में आंसू आ गए। उन्होंने जान लिया कि उनकी बड़ी बिटिया 'हुशियार' हो गई है, वह बाकी बच्चों को सम्भाल लेगी।
सलमा ने कमसिनी में ही जिस्म को हथियार बनाने की कला सीखी थी।
तब वह कक्षा आठ की छात्रा थी।ये भी कोई उम्र होती है, जिस्म के पोशीदा राज़ जानने की?लेकिन क्या करें इस समाज का, जहां लोग ग़रीब की लड़की को घूर-घूर कर जवान बना देते हैं।देह की दौलत के नाम पर क्या था सलमा के पास। महज़ ग़रीबी की मार खाई सूखी सी काया, सूखे से हाथ-पैर, कंकाल-नुमा चेहरे पर चुंधियाई आंखें और बाहर को निकले दांत...इतने बेरौनक जिस्म को भी लोलुप आदमी जाने किस चमक की आस में घूरते रहते हैं।देह के भौतिक, रासायनिक और जैविक स्वरूप की जानकारी का पाठ पढ़ाने वाले प्रथम पुरूश को सलमा भला कैसे भूल सकती है।वह महाशय गंगाराम सर ही तो थे।
उनका एक पैर कुछ छोटा था, जिस के कारण उनकी चाल में थोड़ी लचक थी।
इसीलिए बच्चे और बड़े पीठ पीछे उन्हें 'तैमूरलंग' कहा करते थे। गंगाराम सर के सिर पर खूब घने बाल थे, ऐसा लगता जैसे विग लगाए हुए हों। उनकी किचड़याई रहती थीं।
वह गणित पढ़ाया करते थे।सलमा को स्कूल का माहौल अच्छा न लगता और ख़ासकर गंगाराम सर तो एकदम भी नहीं ।गंगाराम सर नगर के खाते-पीते घरों बच्चों की तरफ ज्यादा ध्यान दिया करते थे। ग़रीब बच्चों का मज़ाक उड़ाया करते थे।सलमा ग़रीब थी, पढ़ाई में कमज़ोर थी और मुसलमान भी थी।इसलिए उसे कक्षा में पिछली बेंच बैठना पड़ता था। अक्सर गंगाराम सर पिछली बेंच के बच्चों को खड़ा कर कठिन-कठिन प्रष्न पूछा करते और ज़ाहिर है कि वे उत्तर न जानते थे। नतीजतन गंगाराम सर छड़ी से उनके हाथ लाल कर देते थे।
सलमा अक्सर उनसे पिटती थी।बाद में उसने जाना कि गंगाराम सर पीटने के बहाने उसकी पीठ, कंधे और बांह की थाह लिया करते हैं। फिर उसे लगता कि हो सकता है ये उसका वहम हो।वह किसी से कुछ न कहती।सलमा के बगल में बैठती थी मुमताज बानो। मुमताज के सरकारी बस के चालक थे। उसकी आर्थिक दशा सलमा से अच्छी थी। इसलिए वह थोड़ा स्टाईल भी मारती थी।सलमा स्नेह की भूखी थी।
मुमताज़ बानो थी तो खाते-पीते घर की, लेकिन उसके दिमाग में गोबर भरा हुआ था।
हां, सलमा की तुलना में वह साफ-सुथरे कपड़े पहन कर आया करती थी।बाल करीने से काढ़े हुए रहते।उसके बदन पर मैल न होता और न ही गाल पर मच्छर काटने के निशानात!
सलमा ठहरी अपने लाचार-बेज़ार अब्बू की बिटिया।अम्मी होतीं तो क्या उसके बाल यूं लटियाए रहते, दांत मैले रहते और चेहरा बेनूर होता!जब देखो तब सलमा अपने रूखे बालों को खबर-खबर खजुआते रहती।लड़कियां उससे दूर रहतीं कि कहीं उनके सिर में भी जूएं न पड़ जाएं।एक दिन जब गंगाराम सर ने गणित के लाभ-हानि वाले पाठ का एक सवाल उससे पूछा तो वह आदतन कुछ बता न पाई।गंगाराम सर ने छड़ी से मार-मार कर उसकी हथेली लाल कर दी।सलमा को उस मार के दर्द से कोई तकलीफ़ न हुई, लेकिन घर में पढ़ने के लिए थोड़ा भी वक्त न निकाल पाने की मजबूरी से उसे दुख हुआ।वह रोने लगी।
फिर उसे अपनी अम्मी की याद आई। वह होतीं तो शायद ऐसे बुरे दिन न देखने होते। अम्मी उसका तनिक भी ख्याल रखतीं तो क्या वह ऐसी मैली-कुचैली दिखती।तब हो सकता है कि कक्षा के बच्चे और शिक्षक उससे नफ़रत न करते।वह भी घर में पढ़ती तो रोज़ाना की इस मार-डांट से बची तो रहा करती।और वह हिचकियां ले-लेकर रोने लगी। बगल में बैठी मुमताज़ नहीं जानती थी कि इस हालत में सलमा को कैसे चुप कराया जाए। सलमा टेसुए बहाती रहीं तो गंगाराम सर चिंतित हुए। वह पास आए और प्यार से उसके बालों पर हाथ फेरते हुए कहा--''छुट्टी होने पर तुम स्टाफ-रूम में आकर मुझसे मिलना।'' गंगाराम सर ने जो उसके सिर पर हाथ फेरा उससे उसे कुछ सांत्वना मिली।
मुमताज़ ने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर सहलाया।सलमा की सुबकियां कम हुईं।छुट्टी होने पर बस्ता समेट सलमा कक्षा से बाहर निकली। उसके दिमाग में गंगाराम सर की बात घूम रही थी कि तुम स्टाफ-रूम में आकर मुझसे मिलो।
सलमा के क़दम स्वत: स्टाफ-रूम की तरफ उठे।हेडमास्टर साहब के आफिस के बाहर चपरासन बैठी स्वेटर बुन रही थी। आफिस के बगल में लाईब्रेरी थी फिर उसके बाद स्टाफ-रूम। सलमा ने परदे की झिर्रियों से कमरे के अंदर ताका। गंगाराम सर बैठे हुए थे। जैसे वह सलमा का इंतज़ार कर रहे हों।सलमा परदा हटाकर खड़ी हो गई।
गंगाराम सर ने उसे अंदर बुलाया और जब वह उनके पास पहुंची तो उसकी निगाहें झुकी रहीं।गंगाराम सर ने उससे कहा-''मेरी तरफ देखो, मैं तुम्हें मारता इसलिए नहीं कि मैं तुम्हारा दुश्मन हूं। मुझे हमेशा यही लगता है कि तुम्हें पढ़ना-लिखना चाहिए। लेकिन मैं तुम्हारी मजबूरी समझता हूं। तुम चिन्ता न करो। मैं तुम्हारे बाप को जानता हूं। बिचारा ग़रीब मजदूर है। चक्की में काम कर किसी तरह बच्चों का लालन-पालन करता है। तुम्हारे बाप से बात करूंगा कि वह तुम्हें मेरे घर पढ़ने भेज दिया करें। मैं तुम्हें अलग से पढ़ा दिया करूंगा। ऐसा पढ़ा दूंगा कि एक दम 'फर्स्ट-क्लास' पास हो जाओगी।''
सलमा चित्र-लिखित सी उनकी बात सुनती रही।फिर उन्हें नमस्कार कर कमरे से बाहर निकल आई।गंगाराम सर ने उससे कहा कि रविवार के दिन अपने घर का काम-काज निपटा कर सलमा उनके घर आ जाया करे। दुपहर में अपने आराम करने के समय पर वह उसे एक-डेढ़ घण्टे पढ़ा दिया करेंगे।सलमा ने घर आकर अब्बू को स्कूल की बात बताई। अंधे को क्या चाहिए, दो आंख!अब्बू गंगाराम सर को जानते थे।
उन्होंने सलमा को इजाज़त दे दी।
रविवार का दिन।
गंगाराम सर के घर सलमा को पढ़ने जाना था।जल्दी-जल्दी उसने घर के काम-काज निपटाए।उसके बाद उसने सोचा कि अच्छे से साफ-सुथरा हो लेना चाहिए।इसलिए सलमा नहाने के लिए आंगन के कोने में बने गुसलखाने में चली गई। टाट-बोरे के टुकड़े, चटाई, बांस की खपच्चियां आदि से जोड़-तोड़ कर बनाया गया बिना छत का गुसलखाना।
जिसके अंदर पत्थर की एक बड़ी पंचकोना चीप बिछी हुई थी।इतनी बड़ी पत्थर की चीप कि एक आदमी आसानी से बैठ कर नहा सके और कपड़े भी धो-फींच ले।चीप के पास ही, एक कोने पर आधा कटा ड्रम का टुकड़ा रखा हुआ था। उस ड्रम में सुबह-सुबह सलमा या फिर रूकैया बाहर चांपाकल से पानी लाकर भर दिया करती थीं।
उसी से घर का निस्तार चलता।
उसके बाद यदि उसमें पानी घटता तो तत्काल बाहर से पानी लाना पड़ता था।गुसलखाना के साथ वह धिरी हुई पर्देदार जगह पेशाब-घर का भी काम करती थी। मुसलमानों में पेशाब करने के बाद पानी इस्तेमाल करना ज़रूरी होता है, वरना जिस्म में नापाकी बनी रहती है। इसलिए ड्रम में पानी हमेशा उपलब्ध रहता है।अम्मी से बेटियों ने पाक-साफ रहना सीखा था। अम्मी कहा करती थीं कि हमेशा 'इस्तिंजे' से रहा करो, जाने अल्लाह-पाक कब और किन हालात में इंसान की रूह कब्ज़ कर ले!हां, महीने के उन ख़ास दिनों को छोड़कर जब किसी औरत को नापाक रहना ही पड़ता है।अम्मी बताया करती थीं कि इस नामुराद घर में उनकी शादी से पहले गुसुलखाना नहीं था। तेरे अब्बू और दादा-अब्बू बाहर खुले में नहाया करते थे। औरतों को नहाना होता तो चारपाईयों की ओट बनाकर अस्थाई गुसलखाना बना लिया जाता था।
बड़ा अजीब लगता था उन्हें।अम्मी ने जब देखा कि ये लोग नहीं बदलेंगे, तब उन्होंने स्वयं टूटी-फूटी चीज़ें जोड़-जाड़ कर आंगन के कोने को गुसुलखाने की शक्ल दी थी। अम्मी हमेशा अपनी ससुराल को कोसा करतीं। अपने भाईयों और भौजाईयों की लापरवाहियों का रोना रोतीं, जिन्होंने उनकी शादी इन कंगालों में करके अपने सिर से बला टाली थी।कभी वह अपनी किस्मत को फूटा हुआ बतातीं। अल्लाह-तआला ने उनकी तकदीर इतनी बुरी क्यों लिखी, इस सवाल जवाब अम्मी हमेशा खुदा-वंद करीम से पूछती रहीं।सलमा की अम्मी बताया करती थीं कि उनके मां-बाप अच्छे खाते-पीते लोग थे।
सन् 47 में विभाजन के समय उनके मां-बाप बांग्लादेश चले गए। अम्मी तब बच्ची थीं और बड़े मामू के पास ही रहती थीं। बड़े मामू कलकत्ता की जूट-मिल में मिस्त्री का काम करते थे। अच्छी आमदनी थी उनकी। खिदिरपुर की सीमा पर उन्होंने एक कट्ठा ज़मीन खरीद कर वहां मकान भी बना लिया था।
अम्मी बतातीं कि उनके बड़े भाई बहुत रहमदिल इंसान थे लेकिन भाभी जैसे कड़वा-करैला। ऐसी ज़हर बुझी बात कहतीं कि बस कलेजा जल जाता। फिर भी दिन ठीक ही गुज़र रहे थे।
तभी बड़े मामू को टीबी हो गई और उनके घर के हालात ख़राब हो गए। मुमानी के अत्याचार बढ़ने लगे तो अम्मी के छोटे भाई उन्हें अपने साथ बिलासपुर लेते आए।
वह बिलासपुर में रेल्वे इंजिन चालक के पद पर कार्यरत थे।उन्होंने जैसे-तैसे अम्मी की शादी इब्राहीमपुरा में तय कर दी। तब अम्मी मात्र तेरह या चौदह बरस की थीं।बच्ची ही तो थीं, जब उनपर ज़िम्मेदारियों का बोझ आन पड़ा था।अम्मी को अपने पूरे माईके वालों से और अपने ससुराल वालों की ग़रीबी और असभ्यता से सख्त चिढ़ थी।इसीलिए अम्मी जब तक इस घर में रहीं बेगाना बन कर रहीं।उन्हें घर की किसी भी चीज़ से भावनात्मक लगाव न था। यहां तब कि अपनी बच्चियों से भी नहीं। एक दिन ऐसा भी आया कि घर के सभी सदस्यों को अचम्भित छोड़ कर अम्मी जाने कहां चली गईं।जाने क्या हो जाता है कि सलमा अपनी अम्मी को जितना भूलने की कोशिश करती है, अम्मी का प्रेत रह-रहकर उसे डराता रहता है।
सलमा ने अक्सर चाहा कि गुसुलखाने में रखे ड्रम को वह कहीं फेंक आए या फिर उसे तोड़-फोड़ कर आंगन में बिखरा दिया जाए, लेकिन वह ऐसा कभी कर न सकी। अम्मी के ज़माने में ये ड्रम बहुत रूतबे वाला हुआ करता था। घरेलू-इस्तेमाल के लिए अब्बू जैसे-तैसे बाहर से पानी लाकर उस ड्रम में भरा करते थे, तब कहीं जाकर उन्हें हाजी जी की चक्की में डयूटी बजाने का हुक्म हुआ करता था।
अब्बू अम्मी से डरते बहुत थे। सर्दियों में गुसलखाने के जर्जर पर्दे को कूद-फांद कर धूप की किरनें ड्रम पर पड़ती थीं। सुरैया चांपाकल से पानी लाकर उस ड्रम में डाल देती जो दुपहर होते-होते कुनकुना-गर्म हो जाता। सलमा नहाने के लिए सिर्फ समीज पहने हुए पत्थर की चीप पर बैठ गई और उसने सबसे पहले अपने पैरों की सफाई करनी चाही। एड़ि पर मैल की मोटी परत जम कर सख्त हो चुकी थी।
बिना पत्थर से रगड़े मैल न छूटता।उसने मैल छुड़ाने वाले पत्थर के टुकड़े से एड़ियों का मैल निकाला। साबुन के नाम पर कपड़ा धोने वाला घोड़ा छाप साबुन था।उसने उसी से अपने सिर धोए।सिर से इतना मैल निकला कि पूरा गुसलखाना काला हो गया।
वह चाहती थी कि सारे बदन की रगड़-रगड़ कर सफाई करे, लेकिन गुसलखाना बिना छत का था। उनके गुसलखाने से हाजी रफी की छत दिखलाई देती थी। यदि हाजी रफी की छत पर कोई आ जाए तो गुसलखाना बेपर्दा हो जाएगा।अपने बदन को खुद से छुपाते हुए उसने अच्छी तरह पूरे बदन पर साबुन मला।
फिर दिल खोलकर नहाया।
जब वह नहा कर फुर्सत पाई, तो गर्मी के कारण कुछ ही देर बाद बालों को छोड़ बदन का पानी सूख गया। कपड़े धोने के साबुन के कारण जिस्म की चमड़ी खुष्क हो गई। ऐसा लगने लगा जैसे चमड़ी में खिंचाव आ रहा हो। बदन खुजलाने लगा।जब उसने हाथ खुजलाया तो हाथ की चमड़ी पर सफेद लकीरें खिंच आईं।उसने तत्काल रसोई घर जाकर सरसों का तेल हथेलियों पर लेकर पूरे बदन पर लगाया, तब जाकर उसे राहत मिली।ईद में अब्बू ने मस्जिद-मार्केट से सलवार-सूट दिलवाया था। मेंहदी रंग का वह सूट सलमा पर खूब फबता था।
उसने वही सूट निकाल कर पहन लिया।रूकैया और सुरैया उसे सजते देख रही थीं।उसने सुरैया को समझाया कि वह एक-डेढ़ घण्टे में आ जाएगी। वह टयूशन पढ़ने जा रही है।
उसके पीछे वे दोनों शैतानी न करें। लड़ाई-झगड़ा न करें। रसोई की देगची में चावल-दाल बचा हुआ है। भूख लगे तो वही भकोस लेंगी। कहीं बाहर खेलने न जाएं और न ही किसी को घर में घुसने देंगी।इतना समझा, किताब-कापी लेकर सलमा गंगाराम सर के घर की तरफ निकल पड़ी।
बस-स्टैंड के पीछे नदी की तरफ जाने वाले रास्ते में सेठ हजारीमल के नौकरों का आवास और गाय-भैंस वाली खटाल थी।नदी के किनारे की ज़मीन, जो कि निश्चित है कि सरकारी ही होगी। उस ज़मीन पर सेठ हजारीमल ने अवैध क़ब्ज़ा जमा कर लगभग बीस मकानों का एक बाड़ा बनाया हुआ था। दो-दो कमरे का मकान। पानी के लिए कुंआ और कुंआ के इर्द-गिर्द औरतों और मर्दों के नहाने के लिए अलग-अलग गुसलखाने। पैखाना के स्थान पर भगवान की बनाई नदी के किनारे का निर्जन इलाका। गंगाराम सर का मकान नदी के छोर पर था।फिर उसके बाद नदी की ढाल चालू होती थी। नदी नगर की विभाजन-रेखा है।
नदी के एक तरफ जिन्दा नगर आबाद और नदी की दूसरी तरफ मुर्दा से गांव।
कहते हैं कि नदियों के किनारे ही दुनिया की सभ्यताएं विकसित हुई हैं। आख़िर हों भी क्यों न! अब इसी नदी को ही ले लो। बस-स्टैंड बना तो नदी के तट पर कि यात्रियों, बस-चालकों, कण्डक्टरों आदि को निस्तार के लिए कहीं भटकना न पड़े। नदी के किनारे दैनिक-क्रिया से फ़ारिग भी हो लिए, कपड़े साफ कर लिए और नहा लिए। पूरा नगर ही नदी के साथ-साथ बल खाते हुए विस्तार पाया है। नदी आगे जाकर बड़ी नदी हसदेव से जा मिली है।वहां तक नगर का विस्तार है।धड़ाधड़ मकान बन रहे हैं।जो भी यहां एक बार आया यहीं का होकर रह गया। इसी कारण मारवाड़ियों, जैनियों, सिक्खों, इसाईयों और मुसलमानों के कई-कई पूजा-स्थल यहां बन गए हैं।
मंदिर तो अनगिनत बन गए होंगे।
जब सारे भगवानों के लिए अपने अलग-अलग, कई-कई मंदिर बन गए तो उसके बाद नगरवासियों ने शिरडी वाले साईं बाबा का मंदिर बनाना षुरू कर दिया है। एक और सांईराम भगवान हैं जिनका मंदिर प्रस्तावित है। मुसलमानों में धर्म और व्यवसाय के घाल-मेल को समझने वालों ने भी नगर के बाहरी इलाके में एक मज़ार का तसव्वुर कर लिया। अब वहां पर एक पक्की मज़ार है। हर साल वहां उर्स का मेला भरता है। नागपुर, बनारस जैसी जगहों से क़व्वाल बुलाए जाते हैं। ढेरों चादरें चढ़ती हैं।राम-लीला, यज्ञ, रास-लीला जैसे आयोजन बड़े धूम-धाम से किए जाते हैं।
सेठ हजारीमल के बाड़ा और गंगाराम सर के मकान के बीच की खाली जगह पर एक भव्य शिव-मंदिर का निर्माण-कार्य चल रहा था।नदी के इस इलाके में सलमा बहुत कम आई थी।
बचपन मे जब पानी की किल्लत होती थी, वह अम्मी के साथ इस नदी पर कपड़े धोने और नहाने आया करती थी। नदी आगे जाकर मुड़ गई है। जहां पर नदी मुड़ती है, नदी की धार मंद होती है उस जगह को 'दहरा' कहा जाता है।सलमा ने 'दहरा' का अर्थ ऐसी जगह से लिया जहां पानी कुछ गहरा हो। वाकई 'दहरा' पर पानी प्रचुर मात्रा में साल भर रहता है।
'दहरा' के किनारे ग्रेनाइटिक चट्टानें हैं।उन चट्टानों पर लोग कपड़े धोते हैं।सलमा को इस 'दहरे' पर नहाना बहुत अच्छा लगता था। हां, गर्मियों में जब वे नहा-धो कर घर वापस आतीं तो धूप सिर चढ़ आती थी और पूरा बदन पसीना-पसीना होकर दुबारा नहाने की मांग करता था।सलमा जिस समय गंगाराम सर के मकान पहुंची, आसमान की ऊंचाईयों पर सूरज दमक रहा था।मकान के दरवाज़े पर नेमप्लेट लगी थी।लिखा था-''गंगाराम, व्याख्याता''
सलमा थोड़ी देर रूकी रही, क्योंकि घर का दरवाज़ा अधखुला था।उसने अंदर झांका।पहला कमरा बैठकी की तरह का था, जिसमें चार प्लास्टिक की कुर्सियां और एक तख्त था। तख्त पर सलीके से गद्दा-तकिया बिछा था। थोड़ा और अंदर तक ध्यान से देखने पर उसने पाया कि अंदर वाले कमरे में गंगाराम सर कच्छा-बनियान पहने बैठे हैं। केरासिन तेल वाले प्रेशर-स्टोव के जलने की आवाज़ आ रही है।सलमा ने झिझकते हुए सांकल बजाई।गंगाराम सर 'हांजी' की आवाज़ निकालते बाहर आ गए।उनके हाथ पर आटा चिपका था।
शायद आटा गूंथने की तैयारी कर रहे हो या फिर रोटी बना रहे हो।सलमा को सर की ये हालत देख हंसी आई लेकिन संकोंच के कारण वह हंसी नहीं। गंगाराम सर ने उसे अंदर आने को कहा।
''हें हें हें, का करूं, बच्चे हैं नहीं, सो खुदै रोटी पका रहा था।'' गंगाराम सर ने बातें बनाईं।
सलमा से रहा न गया। उसने कहा कि सलमा के रहते सर रोटी बनाएं वह कैसे बर्दाश्त करेगी। इसलिए आप दूसरे काम निपटा लें तब तक सलमा रोटी बना देगी।
गंगाराम सर ने कहा कि ये तो रोज़ाना का काम है। होटल का खाना बदन को 'सूट' नहीं करता इसलिए जैसा भी कच्चा-पक्का बनता है, बना लेते हैं।अंदर के कमरे में एक तरफ किचन थी।वाकई गंगाराम सर आटा गूंथने की तैयारी में थे। तभी तो स्टील की परात में आटा पड़ा था और जग में पानी।सलमा बैठ गई और आटा गूंथने लगी।
गंगाराम सर उसके पास बैठ गए और सलमा को आटा गूंथते देखते रहे।सलमा ने आटा गूंथने के बाद आटे की छोटी-छोटी लोईयां बनाईं।गंगाराम सर उन लोईयों को बेलने लगे तो सलमा ने उनसे बेलन-चौकी छीन ली और कहा कि आप बैठ कर रोटी सेंक दें।
सलमा रोटी बेलने लगी।गंगाराम सर तवे पर रोटी सेंकने लगे।सलमा को संकोच तो हो रहा था, लेकिन कक्षा में बुरी तरह पीटने वाले गंगाराम सर की इस दयनीय हालत से वह द्रवित हो गई थी। घर में कितने सीधे-सादे हैं गंगाराम सर, सलमा को यह अच्छा लग रहा था।दस-बारह रोटियां बनाईं उसने।फिर वह अंदर आंगन में आकर हाथ धोने लगी।उसने सोचा कि वक्त तो ऐसे ही गुज़र गया। पता नहीं कब सर पढ़ाएंगे और फिर उसे वापस घर भी तो लौटना है।
सलमा हाथ धोकर बैठकी में आ गई और ज़मीन पर चटाई बिछाकर किताब खोल कर पढ़ने लगी।गंगाराम सर भी वहां चले आए।उनके हाथ में दो थालियां थीं।एक खुद के लिए और दूजी थाली सलमा के लिए।सलमा ने बताया कि वह तो खाना खाकर आ रही है।गंगाराम सर ने कहा-''का हुआ, जो खा कर आई हो। अरे, इहां का भी तो चख कर देखो...!''
सलमा को भूख तो लग आई थी, लेकिन संकोच के कारण वह निर्णय नहीं ले पा रही थी, कि खाना खाए या न खाए।देखा कि उसकी थाली में दो रोटियां हैं। उसने एक रोटी उठाकर गंगाराम सर की थाली में डाल दी और सकुचाते हुए रोटी के छोटे-छोटे कौर बनाने लगी।सर भी उसके पास चटाई पर बैठ कर रोटी खाने लगे। एक रोटी के तीन कौर बनाकर चपर-चपर की आवाज़ के साथ गंगाराम सर खाना खाने लगे। सलमा को चप-चप की आवाज़ से चिढ़ है।बहनों को तो वह टोक देती थी, लेकिन सर को कैसे मना करे। उसने किसी तरह रोटियां कंठ के नीचे उतारी और चुप-चाप बैठी रही।गंगाराम सर ने लगभग आठ रोटियां खाई होंगी फिर एक लोटा पानी पीकर उन्होंने बड़ी तेज़ डकार ली।सर ने थाली में ही हाथ धोया और सलमा से भी कहा कि वह थाली में हाथ धो ले।सलमा की अम्मी ने यही सब तो सिखाया था कि हाथ उस थाली में कभी न धोइए, जिसमें आपने खाना खाया हो।
सलमा उठते हुए सर की जूठी थाली उठाने लगी तो सर ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा-''अरे, ये का कर रही हो। बाई आएगी तो बर्तन धोएगी।''सलमा ने थाली उठाकर हाथ में ले ली और आंगन में आ गई। एक तरफ बर्तन-कपड़े धोने के लिए जगह बनी थी।उसने जूठी थालियां वहीं रख दीं और थोड़े से पानी से हाथ धो लिए।खाना खाकर गंगाराम सर की तोंद उभर आई थी।वे चटाई पर बैठ कर एक डब्बे से तम्बाखू-चूना-सुपारी का गुटखा बनाने लगे।सलमा भी उनके पास बैठ गई और किताब खोलने लगी।खैनी खाकर गंगाराम सर थूकने के लिए बाहर निकले और फिर वापस आकर तखत पर पसर गए।
फिर उन्होंने सलमा को तखत के पास वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।सलमा चटाई पर ही बैठी रही तो सर फुर्ती से उठे और सलमा को उठा अपने पास तखत पर बिठा लिया।सलमा अचकचा गई।जो टीचर स्कूल में इतना सख्त हो कि पीट-पीट कर हाथ लाल कर दे, वह घर में इतना मुहब्बती होगा, सलमा को यकीन न हुआ।
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