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बुधवार, 4 सितंबर 2013

बिलौटी (भाग २)

रात-बिरात बेचैन आत्माओं की तरह मंडराने वाला जीव रमाकांत, नषे में धुत उधर से गुज़रा। चांदनी के धुंधलके-उजियारे में महुआ के तले, एक गठरीनुमा आकृति देख कर वह ठिठका। दबे पांव पगली तक पहुंचा।
पगली “ाराब की भभक और रमाकांत के पैरों की आहट सुन सचेत हुइ। रमाकांत पैर से गठरीनुमा चीज़ को टोहने लगा। पगलिया हड़बड़ा कर उठ बैठी। रमाकांत का नशा  भाग गया। उसने अपने होंठ पर ऊंगली रख उसे चुप रहने का इषारा किया और जेब टटोलने लगा।  जेब से तुड़ा-मुड़ा दो रूपए का नोट निकला। रूपया पगलिया की तरफ बढ़ाया उसने। पगलिया हंस दी। रूपया लेकर चांदनी में उसे देखने लगी। रमाकांत ने उसका चेहरा गौर से देखा। वैसे भी वह औरतों का नाम और चेहरा जानने वाला जीव न था। जिस तरह “शराब की ब्राण्ड पर बहस किए बगैर उसे पूरी श्रद्धा से वह ग्रहण किया करता था, उसी तरह स्त्री-देह की उपलब्धता ही उसके लिए प्रमुख हुआ करती। नाम, काम-धाम, जात-पात के झमेले सब बेमानी थे।
पगलिया जाड़े से ठिठुर रही थी। रमाकांत कुछ सोचकर पगलिया को सिन्हा बाबू के क्वाटर में दुतल्ला में चढ़ने के लिए बनी सीढ़ी के नीचे की खाली जगह पर ले गया। यहां पगलिया को कुछ राहत मिली। ठंड से बची तो भूख के एहसास ने हमला कर दिया। उसने रमाकांत से कुछ खाने को मांगा। रमाकांत उसे गरियाने लगा। जब इस समय कहां कुछ मिलता। गरियाने के बाद “ाांत हुआ तो पगलिया के संग मौज करने का इरादा छोड़ना पड़ गया। वह भूखी-प्यासी है। कैसे हो उसकी भूख बुझाने का इंतज़ाम?
रमाकांत को अपने क्वाटर में रखी दाल-भात की पतीली याद हो आइ, जिसे रात में खाकर वह सोता। कुछ सोचकर उसने पगलिया के कंधे थपथपाए और पीछे लाइन के क्वाटरों में गुम हो गया।
पगलिया भूख-प्यास से बेहाल थी। गठरी में दो-तीन डबलरोटी थी। याद आया तो गठरी खोल कर बैठ गइ। डबलरोटी में इतनी गंध थी कि उसके देह से उठती दुगंध फीकी पड़ गइ। डबलरोटी भुसभुसा भी गइ थी। एक-दो टुकड़ा मुंह में डालकर चुभला रही थी कि रमाकांत एक पोलीथीन में दाल-भात लिए आ गया। एक दारू की बोतल में पानी का जुगाड़ भी साथ था। पगलिया दाल-भात पर टूट पड़ी। दारू की बोतल का पानी एक सांस में गटक गइं। रमाकांत उस दृष्य को देख कर स्तब्ध रह गया। पगलिया के सवांग दषन का अवसर मिला। सफर की गद और थकान के बावजूद उसके जवान चेहरे पर चमक बरकरार थी।
लेकिन ये क्या...जैसे ही पगलिया के पेट में भोजन गया, वह रमाकांत को धन्यवाद देने के स्थान पर उसे आन-तान गालियां बकने लगी। रमाकांत का नषा हिरन हो गया। नेकी का उसे ये क्या बदला मिला। वह गालियों की परवाह किए बगैर उस पर चढ़ाइ कर बैठा। उसके गाली उच्चारते मुंह को अपने मुंह से बंद कर दिया। उसके हाथों को अपने दोनों पंजों से सख्ती से दबोचे रखा। उसकी टांगों को अपने भारी पैरों तले दबा लिया। आ...ऊं....इ... करती पगलिया जल्द ही षिथिल पड़ गइ। रमाकांत को इस नए चैलेंज में अनोखा रस मिला।



सिन्हा बाबू की धमपरायण पत्नी आदतन प्रात:-भ्रमण के लिए निकलीं। सीढ़ियों के पास से आती खराटे की आवाज़ सुनकर चौंकी। निगाह गइ तो अवाक् रह गइं। अस्त-व्यस्त कपड़े में अपनी देह खोले-छितराए पड़ी युवती इधर कहां से आ गइ? उन्हें उस युवती पर दया आ गइ। उन्हें उसकी दषा पर दया हो आइ। पास पहुंची तो दुगंध से उनका माथा फटने लगा। नाक बंद कर उस युवती तक पहुंचीं। ठंड से ठिठुरी काया, आहट पाकर भी न जागी। उसकी गहरी नींद भंग न हुइ तो वे अपने क्वाटर चली गइं। लौटी तो उनके हाथों में एक पुरानी दरी थी। दरी से पगलिया की देह ढांक कर वह पैदजल घूमने-टहलने चली गइं। रास्ते भर उस युवती की स्थिति पर वह विचार करती रहीं। बेषक, युवती के जिस्म से रात में ज़रूर खिलवाड़ किया गया था। उन्होंने ठीक ही किया कि उसके बेपदा जिस्म को ढांक दिया।
टहलने के बाद जब वह लौटीं तो रिहन्द जल-सागर पर छाए पूरबी आसमान के प्रभाती सूरज का लाल-मोहक बिम्ब आंखों में बसा हुआ था। वे बेहद उदार हो गइ थीं। रिहन्द के अंतहीन जल-विस्तार की तरह उदार या कि प्रभाती सूय की सिंदूरी आभा को धरती पर परावतित करने वाले आकाष सी उदार...
कोहरोल की पहाड़ी से रिहन्द बांध का पानी समंदर का भ्रम पैदा करता। एक समंदर सोती हुइ लहरों वाला। ज्वार-भाटा की अनिवायताओं से मुक्त, जिसका एक सिरा पूरबी आसमान की ढलान से सट सा जाता। जहां से दो सूरज एक साथ उगते। एक आसमान की गोद पर और दूजा रिहन्द के कटोरे पर...
इस दृष्य को देख एक नइ स्फूति सी वह महसूस किया करतीं।
घर के सामने कुत्तों के लड़ने की आवाज़ से उनकी तंद्रा भंग हुइ। उन्हें युवती याद हो आइ। सीढ़ी की तरफ निगाह गइ तो देखा कि युवती को स्कूली बच्चे घेर कर खड़े हैं और दो कुत्ते डबलरोटी के टुकड़े के लिए लड़ रहे हैं। पगलिया किचड़ियाइ निंदासी आंखों से कुतूहलवष ये नया दृष्य आत्मसात कर रही थी। उसे अपनी यात्रा का ये नया पड़ाव सुखद लगा रहा था। वह अपने में मगन थी। उसने गठरी खोल कर एक टूटा आइना निकाला और अपना चेहरा देखने लगी।
सिन्हा बाबू की पत्नी ने पहले बच्चों को डांट कर भगाया, फिर कुत्तों को और उसके बाद पगलिया से पूछना चाहा कि वह कौन है? कहां से आइ है? कहां जाना है? क्या यहां उसका कोइ परिचित है? तमाम प्रष्न, तरह-तरह के प्रष्न, हर प्रष्न उस पगलिया की बौराइ-निंदासी आंखों में गुम जाता। तब भन्नाकर उन्होंने कहा--’’चल भाग यहां से!’’
पगलिया को बुरा लगा।
वह अचानक गालियां बकने लगी।
फिर उसने अपनी गठरी में बिखरी चीज़ों को समेटा। दरी को छोड़ वह उठी।
चलने लगी तो सिन्हा बाबू की पत्नी ने उससे दरी साथ ले जाने को भी कहा। पगली पहले तो दरी को भावहीन निगाहों से ताका और फिर दरी को कंधे पर डाल कर चल दी।
सीढ़ियों के बाहर आकर उसने दाएं-बाएं देखा। ऊपर-नीचे ताका। कुछ समझ न आया। हो सकता है वह कालोनी की एक ही डिज़ाइन और एक ही रंग से रंगी इमारतों को देख विस्मित हुइ हो। हो सकता है निमाणाधीन सड़क के ऊबड़-खाबड़ स्वरूप, यत्र-तत्र बिखरी हुइ भवन-निमाण सामग्री आदि देख कर उसे असुविधा महसूस हुइ हो। बहरहाल, उसने जो भी सोचा-समझा हो, उसके क़दम उठे। महुआ के पेड़ की छाया तले वह रूकी। कंधे की डाली दरी को ज़मीन पर पटका और वहीं ज़मीन पर पसर गइ। पल भर बाद उसके खराटे गूंज उठे। सिन्हा बाबू की पत्नी ने माथा पीट लिया। जाने कौन बला उनके क्वाटर के आगे आ पड़ी थी।
तब तक “ोख़ बाबू की पत्नी आ निकलीं। सिन्हा बाबू की पत्नी ने सुबह की घटना बताइ, “ोखाइन द्रवित हुइं।
पगलिया सोइ तो उठी दिन के बारह बजे। जागती नहीं, लेकिन कुत्तों की लड़ाइ से उसकी नींद टूटी। पोटली उधेड़कर कुत्ते डबलरोटी के टुकड़े हज़म कर चुके थे। दूसरे टुकड़े के लिए कुत्तों ने जब पोटली पर धावा बोला तो पगलिया जाग गइ। लेटे-लेटे ही चुनिंदा मदाना गालियां वह बकने लगी।  उसके लिए आसान था कि पत्थर से या हाथ-पैर से कुत्तों को दुत्कारती-भगाती, लेकिन इतना विवेक होता तो भला वह पागल कहां से कहलाती।
कहा जाता है कि इस क्षेत्र में उसके होठों से पहले-पहल उच्चारित यही गालियां थीं। ये उसकी गालियों का पहला सावजनिक प्रदषन था। गालियों के अलावा उसे और किसी तरह के वाक्य बनाना नहीं आता था।
“ोखाइन ने पगलिया के लिए अपनी उतारन साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट ला दिया। आस-पास के अन्य लोगों ने उसे घर का बचा-खुचा खाना दिया। पगली के चेहरे पर निष्चिंतता के भाव दिखने लगे। वह इत्मीनान से खाना खाने लगी।
कहते हैं कि यदि सिन्हा बाबू की पत्नी और “ोखाइन ने उसे आश्रय न दिया होता तो उन ठंड के दिनों में, एक अपरिचित-अन्जान जगह में उसका क्या हश्र होता। उसकी स्त्री-देह को भेड़िए झटक लेते या बाघ खा जाता। वह बचती भी या नहीं। किन्तु क्या वह वाकइ बच पाइ? यह तो कइ महीने बाद पता चला कि पगलिया गभवती है। सिन्हा बाबू की पत्नी को “ाक तो पहले से हो गया था, जब उसकी उबकाइ और उल्टियों ने रात का सन्नाटा तोड़ा था।
पगलिया गभवती क्यों न होती?
पगलिया कोइ ‘पवित्र कुंआरी मरियम’ तो थी नहीं, न ही वह कोइ राजकन्या कुन्ती ही थी। न दुनिया के ज्योतिषियों, खगोल-षास्त्रियों ने इधर किसी नए नक्षत्र के उदय होने का संकेत ही दिया था। यह तो एक सामान्य सी घटना थी। जिस तरह धरती की कोख फाड़कर, चुपचाप पौधा आ निकलता है, जिस तरह आसमान को चीरकर अलस्सुबह सूरज की किरणें फूटती हैं...
पगलिया पेट से थी। यह एक ध्रुव सत्य था। वह कौन था जिसका बीज उसकी कोख की धरती पर रोपित था, हर कोइ जानता था, किन्तु सभी खामोष थे। रमाकात भी चुप मारे रहता। वही रमाकांत, पियक्कड़, दरूआ रमाकांत, जो एक बार सरेआम महुआ तले, पगलिया की झोंपड़ी से बरामद हुआ था।
रमाकां पकड़ा नहीं जाता, किन्तु उसकी घरवाली को उस पर संदेह था। पीता था तो ठीक था। दारू पीना कोइ ऐसी बुरी बात नहीं। कोलियरी-खदान वाले इलाके में वैसे भी दारू की खपत ज्यादा रहती है।
‘‘गौरमिंट खुदै बेचती है तो फिर जनता काहे नहीं पिए!’’
इसी तक को वह मानती थी। रमाकांत का पीकर इधर-उधर मुंह मारना उसे बदाष्त न हुआ।
पूरी कालोनी जानती थी कि रमाकांत और पगलिया के बीच रागात्मक सम्बंध है। उसके मित्र ‘आंख मारकर’ रमाकांत से उसकी ‘फेमिलि’ का समाचार लिया करते थे। रमाकांत भी ढीठ किस्म और मज़बूत चेसिस का खचड़ा था, ठीक अपनी सन् पचहत्तर मॉडल गोल टंकी वाली काली राजदूत मोटरसाइकिल की तरह। अपनी आवाज़ के कारण सही मायनों में ‘फटफटी’ थी वह! राजदूत फटफटिया की कान फाड़ू आवाज़ से पगलिया जान जाती और रमाकांत की घरवाली भी कि ‘भयल चुड़ियन के भाग, बलम सिंगलौली से लउटे!’’
एक रात की बात है, तबरीबन ग्यारह बजे, अंधियारी पाख में, रमाकांत की घरवाली ने कालोनी के कुछ लोगों को इकट्ठा किया। फिर पगलिया के महुआ तले बनी झोंपड़ी के बाहर सब को ले आइ। झोंपड़ी के पीछे तरफ राजदूत मोटर-साइकिल की झलक मिल रही थी। हो-हल्ला सुनकर झोंपड़ी के अंदर जल रही ढिबरी बुझा दी गइ। पगलिया टाट का परदा हटा कर, मां-बहिन की गाली बकती बाहर निकल आइ। बड़बड़ाती तो वह हमेंषा थी, लेकिन इतना ग़लाज़त भरा होगा उसमें, कोइ न जानता था।
वह कालोनी की तमाम स्त्रियों को कुल्टा और चरित्रहीन साबित कर रही थी और उस परिमाण में अपने कृत्य को क्षम्य बता रही थी।
उसकी गालियों की परवाह किए बगै़र दो-तीन लोग आगे बढ़े। पुलिस बुलाने की धमकी असरदायक साबित हुइ। एक गोल-मटोल मदाना साया झोंपड़ी से निकला और बड़ी रफ़्तार से पीछे नाले की तरफ भाग गया। अंधेरा काफ़ी था, फिर भी टाच की रोषनी में देखा सभी ने, वह रमाकांत ही था....


बिलौटी ये किस्सा जान न पाती, लेकिन इधर-उधर से जन्म पूव का किस्सा भी उसे पता चल ही गया। बिलौटी के जन्म के बाद पगलिया ने ने बस-स्टैंड के ‘टिन-षेड’ पर क़ब्ज़ा जमा लिया। इधर कालोनी वालों ने विरोध किया। पगलिया की उपस्थिति को भला सभ्य समाज कैसे बदाष्त कर पाता। बात कॉलरी-प्रषासन तक गइ। सिक्यूरिटी वाले उसे भगाने आए। देखा, कोयले की आंच में पगलिया अपनी दोनों टांगे फैलाकर उसमें नवजात बच्चे को लिटाए उसकी सिंकाइ कर रही है। बेखयाली में उसका आंचल ढलका हुआ है। उसकी दूध भरी छातियां कोयले की लाल-लाल आंच में दमक रही हैं। किसी चच के बाहर लगी ‘पवित्र मां मरियम’ की निदोष छातियों की तरह ममता से भरपूर! सिक्यूरिटी वालों ने उस समय उसे छेड़ना उचित नहीं समझा। पगलिया, इन सबसे अनभिज्ञ, अपनी बोली-भाषा में कोइ लोरी गुनगुना रही थी।
तब से, एक तरह से बस-स्टेंड का वह टिन-षेड पगलिया का स्थाइ निवास बन गया। टिन-षेड के बगल में पोस्ट-ऑफिस है। पोस्ट-ऑफिस और पुलिस-चौकी के बीच एक सड़क है, जो अंदर कालोनी की तरफ जाती है।
इस नवनिमित कालोनी में मानव-समुदाय की सभ्यता, संस्कृति और जीवन की प्राथमिक आवष्यकताओं की पूति करने वाली व्यवस्थाएं स्वत: बन गइ हैं। जैसे बीस बिस्तरों वाला अस्पताल, हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम के कइ स्कूल, बैंक, थाना, रेल्व-स्टेषन, “ाापिंग-सेंटर, कैंटीन, मनोरंजनालय, खेल का मैदान, दमकल विभाग के अलावा छोटी-छोटी गुमटियों में बसे दजी, नाइ, पनवाड़ी, धुनिया, भड़भूंजे, झटका और हलाल दोनों तरह के कसाइ, फोटो-स्टूडियो, सुनार, मोची, धोबी, झोला छाप डॉक्टर, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा, “मषान-घाट, कब्रिस्तान आदि तमाम सुविघाओं से लैस नगर-व्यस्ािा।
कहते हैं पुलिस-चौकी के पास आ बसने से पगलिया और ज्यादा बबाद होने से बच गइ। पहले तो जिसका सुर समाता, दो-चार रूपए दिखाकर पगलिया से सट जाता था। अब तो रमाकांत भी इधर का रूख न करता। हां, पगलिया स्वयं दिलजले पुलिसवालों के लिए ज़रूर ‘माले-मुफ्त’ थी। बिलौटी के आ जाने से पगलिया अब उतना भटकती-घूमती न थी। कालोनी के लोग यथासम्भव उसकी मदद करते। बिल्ली जैसी भूरी आंखों वाली बिलौटी हर दिन एक बरस की गति से बढ़ने लगी।
टिन-षेड के पीछे बड़ी नाली थी, जिस पर टाट-बोरा, पोलीथीन और गत्ता-कागज आदि से चौतरफा आड़ बनाकर निस्तारनुमा जगह बना ली गइ थी। पगली इसी घेरी गइ जगह में नहाती धोती और संडास का काम भी लेती। दिन की रोषनी में पदे वाले काम करने में झिझक होती थी, इस लिए जब बिलौटी कुछ समझदार हुइ तो बड़ी नाली पर आकर गिरती छोटी नाली पर, जिसके दोनों तरफ क्वाटर के पिछले दरवाजे और चारदीवारी से सटाकर बनाइ गइ कचरा-पेटी बनाइ गइ थी। उसी कचरा पेटी की आड़ में बिलौटी अपनी हाजत से फारिग हुआ करती।
छह-सात साल की उम्र में ही उसे काफी अक्ल आ गइ थी। पगलिया मां को वह उल्टा-सीधा पढ़ाने लगी थी। सामने चौराहे पर अंडा बेचने वाली बुढ़िया की पोती सनीचरी से उसकी अच्छी दोस्ती हो गइ थी।
ऐसे ही एक दिन, कचरा पेटी के पीछे फ्राक उठाए मगन वह बैठी निपट रही थी कि खटका हुआ। उसकी निगाह आवाज़ की तरफ गइ। उसने देखा कि एक आदमी जिसके खुले बदन पर सिफ एक तौलिया लिपटा था, उसकी तरफ देख रहा है। बिलौटी लजा कर उठ खड़ी हुइ। फ्राक का घेरा घुटनों तक ढांक लिया। उसने सोचा कि आदमी जल्द ही हट जाएगा किन्तु वह आदमी बड़ा बेषम निकला। उसने खड़े-खड़े तौलिया सामने की तरफ से पूरा खोल दिया। अंदर वह कुछ भी पहने न था। बिलौटी घबरा गइ। उसने भागना चाहा। उसके कदम थरथराने लगे। तालू सूखने लगा। आदमी वहीं खड़ा, इत्मीनान से मूतने लगा। बिलौटी आधा मल-त्याग कर पाइ थी कि सरपट भाग गइ और अपनी अनियंत्रित सांसों पर काबू पाया।
कुछ देर बाद जब वह स्थिर हुइ तो सोचा कि सनीचरी को बता आए। उसके बाल-मस्तिष्क में उस घटना ने अजीबो-गरीब परिवतन कर दिए थे। सनीचरी ने जब वह घटना सुनी तो बेतहाषा हंसने लगी।
बिलौटी के लिए आदमी की नग्न देह कोइ नइ चीज़ न थी। पगली मां के पास रात-बिरात आने वाले मदों को वह जानवर बनते देख चुकी थी। इस तरह दिन के उजाले में, किसी समझदार आदमी की हरकत उसमें कुतूहल जगा गइ। बिलौटी ने उस घटना पर कइ कोण से विचार किया। ये तो तय था कि वह आदमी अपने काय से अनजान न था। वह भली-भांति जानता था कि बिलौटी उसे देख रही है। उसने भी बिलौटी को अच्छी तरह देखकर वह हरकत की थी। फिर उसने ऐसा क्यों किया?
अगली सुबह बिलौटी कुछ देर से उठी। पगली मां ने उसका झोंटा पकड़कर खींचा। दिन काफी निकल आया था। पगली मां बासी डबलरोटी को पानी के साथ अपने मुंह में ठूंस रही थी। बिलौटी को भी भूख लग आइ। पहले दिषा-मैदान से फारिग होना आवष्यक था। इसलिए वह रद-बद कचरा पेटी के पीछे भागी। अभी वह फ्राक उठाकर बैठी ही थी कि तौलिया कमर पर बांधने का प्रयास करता वह आदमी पुन: प्रकट हो गया। आज भी वह बिलौटी को देख रहा था। बिलौटी उसी तरह बैठी रही। फ्राक का घेरा खींच कर उसने सामना ढंक लिया। सामने खड़ा आदमी बीस-पच्चीस हाथ की दूरी पर खड़े बाएं-दांए देख रहा था। सुनसान पाकर उसने तौलिया सामने की तरफ से उठा लिया और पेषाब करने की मुद्रा में उसके सामने खड़ा हो गया। वह पेषाब नहीं कर रहा था। उसका चेहरा, जिसमें घनी मूंछें और घुंघराले बाल थे, बेहद उत्तेजित और घृणास्पद दिख रहा था। उसकी रोमहीन छाती खुली थी। बिलौटी जाने क्या सोच कर उठी नहीं, बैठी-बैठी उस व्यक्ति की विवेकहीन दषा का अवलोकन करने लगी। उसका दिमाग सांय-सांय कर रहा था। तभी एक दूसरे क्वाटर का पिछला दरवाज़ा खटका। एक मोटी महिला कचरा फेंकने बाहर आइ। वह आदमी तीर की तरह अपने क्वाटर में भाग गया। बिलौटी को इस खेल में मज़ा आया। यह क्रम कइ दिन चला।
गमियों की उमस भरी दुपहर थी। पोस्ट-आफिस के लेटर बॉक्स के समीप वह आदमी खड़ा था। बिलौटी ने देखा, पगली मां सो रही है। आदमी उसे मुसलसल घूरे जा रहा था। फिर वह अपने क्वाटर की तरफ चला गया। सड़क किनारे लगे गुलमोहर और पीपल के पत्ते झड़े रहे थे। बेहद गम दुपहर, बिलौटी का कंठ सूखने लगा था।  मिट्टी का घड़ा, जिसका मुंह टूटा था, पानी  ठंडा कर पाने में असमथ था। ““ाायद उसके असंख्य छिद्र बंद हो चुके थे। पानी पी कर उसे कुछ सुकून मिला। उस आदमी का प्रकट होना और फिर ग़ायब हो जाना, रहस्यात्मक था। पगली मां भीख मांग कर आज कुछ देर से आइ थी और खा-पीकर बेसुध पड़ी थी। बिलौटी उठकर पीछे नाली की तरफ चल दी। कचरा पेटी के पास पहुंची ही थी कि वह आदमी पेंट-षट पहने पिछला दरवाजा खोल, अचानक नमूदार हुआ। वह इषारे से उसे बुला रहा था। बिलौअी के होषो-हवास गुम हुए। स्वाभाविक चाल चलता वह उसके पास आ पहुंचा। बिलौटी उसके साथ पिछले दरवाजे से उसके घर चली गइ। अब वह उसके आंगन में थी। आंगन में अमरूद का पेड़ था, जिसके पीले, सूखे पत्ते झड़े हुए थे।
वह आदमी अब बरामदे में खड़ा उसे घर के अंदर दाखिल होने का इषारा कर रहा था। उसके पीछे-पीछे बरामदे से होते हुए वह उस कमरे में आ गइ, जहां प्लास्टिक की चार कुसियां, एक चाय की टेबिल, एक चौकी और कोने में एक रंगीन टीवी रखा था। रंगीन टीवी पर गाने आ रहे थे। बिलौटी को ‘घरनुमा’ माहौल की पहली अनुभूति सुखद लगी। कमरा ठंडा था। बाहर की खिड़की पर लगा ‘कूलर’ ठंडी हवा फेंक रहा था। कूलर की तेज़ आवाज़ के कारण गाने की आवाज़ कम सुनाइ दे रही थी।
वह ज़मीन पर बैठने लगी। आदमी उसे चौकी पर बैठने को कह अंदर दूसरे कमरे में चला गया। चौकी पर नरम-मुलायम गद्दा बिछा था, जिस पर बड़े-बड़े पीले फूलों के छाप वाली चादर डली थी। गद्दे पर वह झिझकते हुए बैठी। सिकुड़ी-सिमटी सी ताकि चादर मैली न हो जाए। उसे अपनी फटी-पुरानी फ्राक पर “ाम आने लगी। जाने किसकी उतरन पगली मां ले आती है, फिर थिगड़ी-सिलाइ के बाद बिलौटी को पहनाती। इसके पहले अपने कपड़ों से इस तरह नफ़रत उसे और कभी न हुइ थी।
आदमी लौट आया। उसके एक हाथ में क्रीम वानी बिस्किट थी। आदमी भी चौकी पर उसकी बगल में बैठ गया और बिलौटी की तरफ बिस्किट बढ़ाया। संकोच के साथ बिलौटी ने बिस्किट लिया और कोने से कुतरने लगी। ये क्या....इतना कुरकुरा, मुंह के अंदर इतना घुलनषील, इतना सुगंधित मीठा बिस्किट। पहली बार मिले इस स्वाद से उसका बाल मन तृप्त हुआ। उसने आदमी को कृतज्ञ नज़रों से देखा। आदमी फिर से अंदर चला गया। अब जो लौटा तो उसके हाथ में प्लास्टिक की बोतल थी। बोतल का पानी गिलास में उड़ेंल कर उसे दिया। बिलौटी गिलास छूते ही चकरा गइ। एकदम ठंडा पानी। गिलास के बाहर की सतह पर ओस सी जम गइ थी। गटगटा कर वह पानी एक सांस में पी गइ। उसने महसूस किया कि ठंडा पानी किस तरह, किन-किन रास्तों से उसके पेट में पहुंच रहा है। उसे बहुत मज़ा आया। एक गिलास पानी और मांग कर पी गइ वह। आदमी उसकी बगल में इत्मीनान से बैठ गया और उसका नाम पूछा। उसने दुबारा नाम पूछे जाने पर अपना नाम बताया-’’बिलौटी..’’
आदमी नाम सुनकर, उसके चेहरे पर बिल्ली सी भूरी आंखों को गहरे से देखते हुए कहा-’’आते रहना, मौका देखकर।’’
वह चुप रही।
आदमी ने उसके रूखे बालों को सहलाते हुए उसे अपने ऊपर खींचा। आदमी का स्नेहिल स्पष उसे सुखद लगा। वह खिंची चली गइ। अब वह उसकी गोद में थी। पगली मां का उसे रत्ती भर भी ध्यान न था। सामने टीवी पर गाने के दौरान हीरोइन ठीक उसी तरह हीरो की गोद में बैठी थी। हीरो उसे दुलार रहा था। आदमी ने उसे बाहों में भर लिया। बिलौटी का दम घुटने लगा। उस आदमी के चेहरे पर तनाव के लक्षण नज़र आए। गाल तनतना कर लाल हुए जा रहे थे। उसकी सांसें ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर अनियंत्रित भागने लगीं। बिलौटी की हालत भी कोइ अच्छी न थी। अनजानी आषंकाओं से वह भयभीत हो उठी और रोने लगी। आदमी उसे चुप कराने लगा। इसी दरमियान उसने बिलौटी का मुंह चूम लिया। बिलौटी को अच्छा लगा। अचानक आदमी कांपने लगा। बड़ी ज़ोर से उसने बिलौटी को भींचा। लगा कि उसका दम अब निकला कि तब। फिर वह गद्दे पर लुढ़क गया। उसकी सांस ऐसी भाग रही थी ज्यों कोसों दूर से दौड़ता चला आया हो। फिर उसकी बांहों में भींचे-भींचे वह “ाांत हो गया।
उसकी पकड़ ढीली हुइ तो बिलौटी छिटक कर अलग हो गइ। आदमी लेटे-लेटे ही जेब से पांच रूपए को एक नोट निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। वह चकित थी। किस बात के पांच रूपए वह दे रहा था, वह समझ न पाइ। फिर भी रूपए लेकर वह भाग गइ।
पांच रूपए उसके लिए काफी माइने रखते थे। उसे चुपचाप खपाना उस अकेले के बस की बात नहीं थी। उसके सामने यह एक नइ समस्या आ गइ थी। पगली मां जान जाएगी तो बिलौटी उससे क्या बहाना बताएगी?
ऐसे कठिन समय मे अंडे वाली बुढ़िया की पोती सनीचरी ही बिलौटी का एकमात्र सहारा थी।
सनीचरी थी एक नम्बर की चटोरी-खचीली। उसने बिलौटी से ज्यादा जिरह न की, बस दोनों चुपचाप अनपरा बाजार तक दौड़ती-कूदती पहुंच गइं।
वहां दोनों ने चाट-पकौड़ी खाइ, क़ीपती बिस्किट खरीदा। वह बिस्किट इतना लजीज़, मीठा, घुलनषील और कुरकुरा तो न था, लेकिन फिर भी बिलौटी उस स्वाद से इस स्वाद की तुलना कर बैठी।
एक टेलीविज़न की दुकान के सामने घंटा भर दोनों खड़ी रहीं।
वहां आठ-दस रंगीन टीवी पर किसी विदेषी चैनल का एक ही दृष्य दिखलाया जा रहा था। समुद्र के किनारे विदेषी औरतें बिकनी पहने धूप की सेंक का आनंद उठा रही हैं। कहीं औरतें और मद बिंदास आलिंगनबद्ध हैं। समुद्र की आती-जाती लहरों पर कइ मद-औरतें अठखेलियां खेल रहे हैं। सनीचरी ने जब देखा कि टीवी दुकान का छोकरा उन्हें बड़ी देर से घूर रहा है तब उसने बिलौटी का हाथ दबाया और दोनों ने सोचा कि अब घर लौटा जाए वरना बड़ी कुटाइ होगी।
स्नीचरी, बिलौटी से दो-तीन साल बड़ी थी। नाटे क़द की दुबली-पतली लड़की। झबरे-लटियाए बाल। सनीचरी की फ्राक के सीने के हिस्से पर मैल जमा होकर उभार का आकार लेने लगा था।
लौटते समय दोनों नाले के किनारे आमने-सामने बैठ कर फारिग होने लगीं।
सूरज डूबने वाला था।
उन्हें लौटना भी था।
नाले के पानी से “ाौचते समय सनीचरी का पैर फिसला और वह गिर पड़ी। उसकी फ्राक गीली हो गइ।
सनीचरी फ्राक उतारकर निचोड़ने लगी।
बिलौटी उसकी छाती के नन्हे उभारों को देख हंसने लगी।
तब सनीचरी ने बताया कि उसके भी तो उगेंगे।
फिर हाथों से कटोरेनुमा आकार बनाकर बताया-’’ये इत्ते बड्डे-बड्डे होंगे स्साली!’’
लौटकर दोनों चिड़िया जब अपने घोंसलों में पहुंची, तब रात घिर आइ थी। लोग दिया-बत्ती जला चुके थे।  पगली मां बिलौटी को देख सनक गइ और मोटी-मोटी गालियों से उसका स्वागत किया
फिर वह बिलौटी को पीटने लगी।
बिलौटी का अनपरा बाजार का सारा खाया-पिया बराबर हो गया। सारी मस्ती निकल गइ। हां, मार खाकर बिलौटी ने सोचा कि चलो हिसाब-किताब बराबर हुआ। अब पगली मां बैठकर घण्टों रोएगी। मां मारती ज़रूर है, लेकिन कमज़ोर जगहों पर कतइ नहीं कि बिलौटी मारे दद के बिलबिला जाए। बस, झोंटा पकड़कर खींचते हुए पीठ पर दनादन मुक्के बरसाती है मां। कभी बहुत ज्यादा नाराज़ होने पर छड़ी उठाकर पीठ पर मारती है मां। इतने से बिलौटी पर क्या असर पड़ता।
मार का असर कम हुआ तो बिलौटी उठी।
अंगीठी पर कोयला बीन कर डाला और फिर पगली मां की बगल में आकर लेट गइ। थकी-मांदी तो थी ही, झट गहरी नींद की आगोष में चली गइ।

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