कुल पेज दृश्य

शनिवार, 7 सितंबर 2013

बिलौटी (भाग चार )

उस रात बिलौटी और पगली मां को बहुत गहरी नींद आइ।
बिलौटी की नींद मदाना खुसुर-पुसुर की आवाज़ से खुली।
पता नहीं रात के कितने बजे होंगे।
हां, लगा कि रमाकांत और ठीकेदार भूनेसर यादव आए हुए हैं।
दोनों पिए हुए हैं।
बिलौटी का कलेजा धुकधुकाने लगा।
उसने अधखुली आंखों से माहौल का जाएज़ा लेना चाहा।
ऐसा लग रहा था कि वे दोनों पगली मां को किसी बात पर राज़ी करना चाह रहे हैं।
पगली मां बड़ी तन्मयता से उनकी बातें सुन रही थी।
मेन रोड पर बनारस जाने वाली रात्रि-सेवा बस का हान गूंजा।
भूनेसर यादव और रमाकांत उठ खड़े हुए।
उनकी फटफटिया स्टाट हुइ और उनके जाते-जाते पगली मां की गालियां उन पर बरसने लगीं-’’दहिजरवा के नाती, हरामी आपन बिटिया के संग सोवे का चाहत है...!’’
इन गालियों के आगे फटफटी कहां रूकती।
बिलौटी को माज़रा समझ में गया।
रात भर पगली मां नींद में बड़बड़ाती रही।




·         
पगली मां और बिलौटी को कचरा-सफाइ के काम पर लगा देख लोगों को हैरत हुइ।
चौराहे की पान गुमटी परातिया भविष्यवक्ताओं के मुंह लटक गए।
पगलिया की बिटिया, किसी डराइबर या खलासी के संग भग जाएगी!’’
लोगों का क़यास ग़लत साबित हुआ।
उनकी अटकल-बाजियों से बेपरवाह पगली मां बड़ी तन्मयता से झाड़ू बुहारती और फिर बेलचा की मदद से कचरा तसले पर डाल देती। उस तसले को सिर पर उठाकर बिलौटी बाउण्डरी के बाहर बने कचरा-पेटी में पलट आती।
इस नव-जीवन का आनंद मां-बेटी ने खूब लिया।
पहली बार उन दोनों ने श्रम की महत्ता को जाना।
दिन-भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद रात में उन्हें ज़बरदस्त नींद आती।
कचरा कभी खत्म होता और उन्हें इधर-उधर सोचने की फुसत मिलती।
पगली मां भी मेहनत के कारण थकी-थकी रहती और अब वह लोगों को अकारण गालियां भी बकती थी।
इधर एक बात बिलौटी ग़ौर कर रही थी कि ठीकेदार भूनेसर यादव उस पर अतिरिक्त रूचि ले रहा है। बिलौटी जिस पाठषाला की छात्रा थी, उसका कोइ प्रिंसीपल, हेडमास्टर या फिर टीचर नहीं हुआ करता। वहां का पाठ्यक्रम किसी राज्य-सरकार या केंद्र सरकार द्वारा संचालित नहीं होता। बिलौटी की पाठषाला के पाठ्यक्रम में व्यवहारिक-ज्ञान के अध्याय हुआ करते थे। ऐसा ही एक विषय दूसरों की निगाह की भाषा पढ़ने-समझने का था। बिलौटी उसमें पारंगत थी।
बिलौटी ने भूनेसर यादव ठेकेदार की निगाहों की भाषा का अनुवाद भी कर लिया था।
भूनेसर यादव अब अक्सर सेक्टर-सी की साइट पर काम के निरीक्षण के बहाने से आता तो पगली मां के पास आठ-दस मिनट समय देता और घूरे पर जहां बिलौटी कचरा डालने जाती कुछ ज्यादा समया दिया करता।
वह बड़े मनोयोग से बिलौटी को कचरा का तसला उठाए आते-जाते देखा करता।
बिलौटी जब घूरे के अंदर कचरा फेंकने के लिए जब तसले को दोनों हाथों से ऊपर उठाती, तो ब्लाउज़ के अंदर आकार ग्रहण करते उभारों की झलक मिलती। भूनेसर यादव ऐसे कोण से उसे निहारता, जिससे कचरा उलटती बिलौटी के जिस्म को साइड से और पाष्व-भाग का वह सूक्ष्म निरीक्षण कर सके।
बिलौटी भूनेसर यादव की निगाहों की मार से अन्जान थी।
उसे अपने जिस्म के तमाम ढंके-छिपे हिस्सों पर भूनेसर यादव की निगाहों की चुभन बहुत देर तक महसूस हुआ करती थी। उसे ये सब अटपटा भी लगता था और अच्छा भी।


·         
भूनेसर यादव यूपी का अहीर था।
खाया-पिया पट्ठा जवान।
आथिक आधार मज़बूत था, सो उसके व्यक्तित्व में आत्मविष्वास के कारण दबंगइ की झलक भी मिल जाती थी। वह सुदषन था, पैंतीस-छत्तीस साल का खेला-खाया युवक, तराषी हुइ मूंछें, संकरे माथे पर ढेर सारे बाल, कुता-पैजामा और काली जैकेट उसकी विषिष्टता थी। संभवत: रात बिस्तर पर भी वह ऐसइ सोता होगा।
उसके पास एक मोटर-साइकिल थी, जिस पर सवार होकर वह दौड़-धूप किया करता।
जब से पगली मां और बिलौटी को काम मिला था, उन लोगों ने भीख मांगना बंद कर दिया था। घर में पैसे आने से खान-पान और कपड़े-लत्ते की व्यवस्था ठीक हो गइ थी।
भूनेसर यादव माह भर बाद पगली मां के पास एक प्रस्ताव लेकर आया।
वह चाहता था कि पगली अपनी किषोरी बेटी के साथ आजाद-नगर स्थित उसके आवास के आसपास बस जाए।
जीटी रोड और रेलवे लाइन के बीच की सरकारी जगह पर मजदूर और ठेकेदारों ने क़ब्ज़ा कर लिया था। वे वहां झोपड़ियां और मकान बनाकर गुजर-बसर करते। कोयला-खदान का अधिकतर काम ठेकेदारी श्रमिकों पर निभर था, लेकिन उनके लिए स्थाइ-निवास का कोइ प्रावधान था। इसलिए ऐसे ठेकेदार और श्रमिक इस नइ बस्ती में जीवन-यापन करते।
कोयले की खुली खदान में कोयले के साथ पत्थर-मिट्टी भी बाहर याड में जाया करता था। बेचने से पूव उस कोयले से मिट्टी-पत्थर की अषुद्धि को छांट-बीन कर निकाल फेंकने का काम ठेकेदारी-श्रमिकों के ज़रिए किया जाता था। इस काम में सैकड़ों मज़दूर लगते। साथ ही कॉलोनी, सड़क, पुल, टंकियां और रेलवे-लाइन आदि निमाण काय में हज़ारों की तादाद में इस इलाके में मज़दूरों की खपत है।
ये मज़दूर देष के लगभग सभी प्रांतों से यहां आते हैं।
उन लोगों ने अपनी बस्ती को एक नया नाम भी दे दिया था-’’आज़ाद नगर’’
आजाद-नगर यानी भारतीय संविधान की तमाम धाराओं, उपधाराओं, अनुच्छेदों, नियम-कानूनों से आजाद नगरी।
यहां अधिकार की भावना का बोध तो था लेकिन कतव्य के प्रति उदासीनता देखी जाती थी।
हां, प्रषासन, व्यवस्था और सरकार के लिए यहां सिफ आरोप-प्रत्यारोप और धर-पकड़ की गुजाइष थी। भूख, बीमारी, बेकारी, गरीबी, मृत्यु की भरपूर आजादी का नाम था बस्ती आजाद-नगर। आजाद नगर में दारू भट्टी थी, कसाइ-घर था, चांदसी दवाखाना था, गांजा-अफ़ीम के अड्डे थे, सट्टा-मटका के दलाल थे, रंडियां थीं और इंधन के लिए पयाप्त मात्रा में कोयला था।
आजाद नगर में पेयजल की व्यवस्था थी।
नहाने-धोने के लिए नकटा-नाला का पानी उनकी ज़्ारूरतों पूरी किया करता।
पीने के पानी के लिए कोयला-खदान की कालोनियों के लिए आजाद नगर से गुज़री पाइप-लाइन के लीकेज वाले पानी का इस्तेमाल तमाम आजाद नगर-वासी करते।
चूंकि आजाद नगर बस्ती कोयला खदान से सटी हुइ थी, इसलिए कोयले में विस्फोट से या फिर डम्परों के आवागमन से उड़ती धूल हवा के बहाव के साथ आजाद नगर के वायुमण्डल पर हमेषा छाइ रहती।
ााम के समय, काम से लौटे मज़दूर अपनी-अपनी झोंपड़ियोंं में कोयले के चूल्हे या भट्टियां सुलगाया करते। इससे आजाद-नगर सुलगते-कोयले के सफेद धुंए से ढंक जाया करता। आजाद नगर के पष्चिमी कोने मे कोयला-माफिया सुरिन्दर बाबू की दया से एक भव्य षिव-मंदिर बना है। कहते हैं कि सुरिन्दर बाबू जब इस इलाके में आए थे तो एकदम्मे गरीब थे। जिस जगह षिव-मंदिर बना है, वहीं उनकी झोंपड़ी हुआ करती थी। वह कोयला के ढेर से मिट्टी-पत्थर छांटने वाले मज़दूर से तरक्की करते-करते, मेट-मुंषी हुए, फिर धीरे-धीरे स्वयं ठीका लेने लगे। जोड़-तोड़ का भाग्य चमका, क्योंकि तभी जो प्रोजेक्ट-ऑफीसर आया वह सुरिन्दर बाबू की बिरादरी का निकल गया और जिला-जवारी भी था। वैसे सुरिन्दर बाबू इस समीकरण को नहीं मानते, वह अपनी तरक्की का दारोमदार पूरी तरह भोलेनाथ भण्डारी पर डाल देते और बोल-बम का नारा बुलंद किया करते।
षिव-मंदिर तक कोयला खदान वालों ने पेयजल की पाइप-लाइन बिछवा दी थी।
षिव-मंदिर के आस-पास ज्यादातर ठेकेदार और मुंषियों के आवास थे। इसलिए ये लोग पेयजल की पूति षिव-मंदिर से किया करते।
महाषिवरात्रि के अवसर पर सुरिन्दर बाबू इस षिव-मंदिर पर जल स्वयं चढ़ाया करते, इस मौके पर बनारस से उनका परिवार भी आया करता। वैसे सुरिन्दर बाबू अपने बंगले में अकेले ही रहा करते थे।
आजाद-नगर में भूनेसर यादव ने भी लगभग दो एकड़ के क्षेत्र में क़ब्ज़्ाा किया हुआ था। सीमेंट इंट की बाउण्डरी धिरा था भूनेसर यादव का आवास।
पगली मां का घूमा-फिरा इलाका था आजाद-नगर का।
रमाकांत की ऐयाषियों का पुराना इतिहास आजाद-नगर के चप्पे-चप्पे में दज था।
कभी-कभी तो पी-खाकर यारी-दोस्ती मे वह कइ रातें आजाद-नगर में पड़ा रह जाता था।
पगली मां ने भूनेसर यादव के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसमे उसने कहा था कि वे लोग बस-स्टेंड के इस खुले माहौल से हट कर आजाद-नगर चले आएं। वहां भूनेसर यादव अपने आवास के आसपास उनके रहने की व्यवस्था कर देगा।
सयानी होती बेटी बिलौटी की सुरक्षा के लिए ये प्रस्ताव मान लेना ही हितकर था।
वैसे एक तरफ कुंआ, दूसरी तरफ खाइ वाली बात थी।
कचरा फेंकने वाले ट्रेक्टर में मां-बेटी ने सारा सामान लादा।
सामान क्या था, कचरे का एक और ढेर ही तो था, जिसे सभ्य-समाज अमूमन फेंक दिया करता है। यही कचरा उन मां-बेटी की पूंजी थी, यही उनका सरमाया...



·         
आजाद नगर पगली मां के सेहत का दुष्मन साबित हुआ।
बस-स्टेंड के टिन-षेड में वह पंद्रह-सोलह साल बिता चुकी थी। टिन-षेड मे ंजहां दीवारों की ज़रूरत थी। पोलीथीन-बोरियों से घिरे उसके उस आवास में एक दरवाज़ा भी था, जिसकी सिटकनी लगने पर भी आधा फुट का फांक बचा रह जाता था।  वह एक खुला-खुला प्रजातांत्रिक देष की तरह अहसास कराती व्यवस्था थी।
भूनेसर यादव ने उन लोगों को अपने आवास के पिछवाड़े की एक झोंपड़ी ही दे दी थी।
बिलौटी और पगली मां के लिए किसी बंद कमरे सांस लेने का ये पहला अवसर था। उन्हें ऐसा लगा कि उनका दम घुट जाएगा।
भूनेसर यादव की इस मेहरबानी से पगली मां बहुत विनम्र हो गइ थी। अव वह गालियां कम बकती। बिलौटी को पहले दिन तो वहां अटपटा लगा किन्तु सुख-सुविधाएं देख कर उसे लगा कि जैसे अभी तक वे लोग नरक-वास कर रहे थे।
मिट्टी की दीवारें जगह-जगह कबड़ गइ थीं, लेकिन उन्हें थोड़ा प्यार से सहला देने मात्र से वे दीवारें अवष्य चिकना जाएंगी।
छप्पर खपरैल की थी।
हां,मकान में पानी चूने के लक्षण दिखलाइ नहीं पड़ रहे थे। इसका मतलब है कि ठीकेदार भूनेसर यादव झोंपड़ी की छानी के खपरैल हर सीजन में फिरवा देता है। हो सकता है कि भूनेसर यादव की वह ऐषगाह हो!
झोंपड़ी के बाहर अमरूद का एक पेड़ है। उसके आसपास की मिट्टी अच्छी चिकनी है। पगली मां ने फावड़ा लेकर मिट्टी खोद डाली और उस मिट्टी को पानी से गीला करके उसने झोपड़ी की दीवार को चिकनाने लगी।
बिलौटी कोलियरी के बाज़ार जाकर छूही मिट्टी ले आइ।
छूही मिट्टी से उसने झोपड़ी की दीवारों को लीप दिया।
पास के गांव से काली-मिट्टी ले आइ बिलौटी और उससे झोपड़ी के फष को लीप दिया। बाडर के तौर पर छूही मिट्टी की सफेदी कर दी गइ।
अब उनकी झोपड़ी सज गइ थी।
झोपड़ी के अंदर दो कमरे थे।
पहले कमरे के कोने में एक चूल्हा बना हुआ था।
इस कमरे को उन लोगों ने रसोइ घर बना लिया।
अंदर कमरे में गुदड़ी-कथरी बिछाकर सोने की व्यवस्था कर ली गइ।
दीवार पर एक रस्सी बांध दी गइ, जो कपड़ा टांगने के काम आइ।
झोपड़ी के बाहर एक कोने में पत्थर की एक सिल लाकर रखा गया और उसे तीन तरफ से बोरा-टाट से घेर कर स्नान-घर का रूप दे दिया गया।
अन्य निस्तार के लिए उन्हें नकटा-नाला जाना पड़ता।
वहां हमेषा मज़दूर औरत-मदों की भीड़ हुआ करती।
हंसी-मज़ाक का अच्छा माहौल बना रहता।
एक कपड़े में नहाना और फिर कपड़े बदलने की कला तो पगली और उसकी बिटिया बिलौटी को आती ही थी। यह एक एक्सरसाइज़ की तरह होता है। मां-बेटी दोनों इस कला में अभ्यस्त थीं। मदों का क्या, चौबीस घण्टे औरत की देह पर गिद्ध-दृष्टि गड़ाए रखना उनका धम होता है।
मज़दूर औरतें जानती थीं कि इस देखा-दाखी से उनकी देह खियाती थोड़े ही है।
बड़ा उन्मुक्त वातावरण था नकटे-नाले का।
बिलौटी को ये सब नहीं भाता था, खासकर नाले का काला पानी।
कोयला-खदान से बहकर आया नकटे नाले का पानी काला हो चुका है। उसे लगता कि इस काले पानी से नियमित उपयोग से कहीं उसका बदन काला हो जाए।
इसीलिए षिव-मंदिर से बिलौटी पानी ले आती थी।
वह झोपड़ी के बाहर बने अपने स्नान-गृह में ही उस पानी से नहाया करती।



·         
इस अफरा-तफरी में पगली मां बीमार पड़ गइ।
उसे जाड़ा देकर बुखार आया था।
बुखार था कि उतरने का नाम ही लेता था। पगली मां की कमज़ोर देह बुखार से लड़ नहीं पा रही थी। हां, पहले वह जो गालियां बका करती थी, अब बुखार की हालत में वह गाली बकती बल्कि समझदारी की बातें किया करती।
बिलौटी, अंदर कमरे में पगली मां के बिस्तर के पास एक पुराने तसले में लकड़ी जला दिया करती। उसकी आंच ताप कर पगली को कुछ राहत मिलती।
पता नहीं कहां से आसमान पर बादल आए और टिपिर-टुपुर बारिष की ऐसी झड़ी लगी कि लगा कि जाने कब मौसम की मनहूसियत दूर होगी।
मां की बीमारी के कारण बिलौटी काम पर जा नहीं पा रही थी।
तीसरे दिन भी जब बुखार कम हुआ तो बिलौटी ने सोचा कि अब ठीकेदार भूनेसर यादव से मदद लेना चाहिए।
भागी-भागी वह भूनेसर यादव के पास गइ।
भूनेसर ने अपने मुंषी-मेट को भेज आजाद-नगर के बाहर डेरा जमाए बंगाली-डॅाक्टर को बुलवा लिया।
बंगाली-डॉक्टर ने पगली मों का मुआयना किया और फिर उसे कइ इंजेक्षन लगाए।
वह अपनी डिस्पेंसरी में ही दवाएं भी रखा करता था।
उसने बिलौटी से कहा कि वह उसके साथ डिस्पेंसरी चली चले।
बिलौटी बंगाली-डॉक्टर से दवाएं लेती आइ।
इलाज का सारा खच भूनेसर यादव ने उठाया था।
पगली मां की हालत में कुछ सुधार आया, तो बिलौटी ने सोचा कि अब ठीकेदार का ज्यादा अहसान लेना ठीक नहीं।
वह काम पर गइं।
पगली मां की जगह उसके साथ एक नइ मज़दूर भेजी गइ।
वह बिलसपुरहिन थी।
लम्बी-छरहरी अधेड़ स्त्री।
बहुत मज़ाकिया थी बिलसपुरहिन। बात-बेबात खूब हंसा करती। उसके दांत बाहर को निकले हुए थे।
बिलसपुरहिन ने विष्वास किया कि ठीकेदारी में काम करने के बावजूद बिलौटी अभी कुंवारी है। इस रास्ते में कुंवारी लड़की मिलना संसार का आठवां आष्चय होता है।
भूनेसर यादव की पुरानी मुंहलगी थी बिलसपुरहिन।
उसने बिलौटी को बताया भी था कि ‘‘ठीकेदार भूखा सेर है भूखा सेर, जिस दिन मौका पा जाएगा, खरबोट डालेगा, समझे!’’
ये भी कहती बिलसपुरहिन-’’अइसइ नहीं अपनी झोपड़ी में बसाया है ठीकेदार ने। हां, एक बात है कि जबरइ कुछ नहीं करेगा बो। उसके पास धीरज बहुत है। लहा-पटिया लेगा तुझे टूरी।’’
बिलौटी कहां ऐसी बातों से डरने वाली थी।
अब तक तो वह चार-दीवारी और एक छत का मूल्य सोच ही चुकी थी।
भूनेसर यादव की निगाह में प्रीत-प्यार की परछाइं डोलती वह देख चुकी थी।
ल्ेकिन इतनी कम कीमत पर वह अपने कौमाय का सौदा नहीं करना चाहती थी। उसे कुछ ज्यादा भी मिल सकता था यदि उसने चतुराइ से काम लिया तौ!
देह का दाम जब तय ही होना है तो वह खरीददार की मजी के मुताबिक होकर माल बेचने वाले की इच्छानुसार होना चाहिए।
बिलसपुरहिन के संग-साथ में वह काफी चतुर हो गइ थी। पैंतरेबाजी की कला वह सीख रही थी।
हां, भूनेसर यादव का सामना होने पर वह लजाने का ज़ोरदार अभिनय करती।
वह जानती थी कि भूनेसर यादव के अंदर आग सुलग रही है।
पगली मां अब को ये नया आषियाना रास आया।
दवा-दारू के बाद भी मां की तबीयत ठीक हुइ।
ठीकेदार भूनेसर बिलौटी को उसकी रोजी के अतिरिक्त भी रूपिया दिया करता।
बिलौटी सब जानती-समझती, लेकिन उसके लिए वह उसकााुक्रिया अदा करती।
बस, भूनेसर को अपनी बड़ी-बड़ी भूरी आंखें तिरछी करके निहार देती कि भूनेसर निहाल हो जाता।
बिलौटी की भूरी आंखों का षिकार हो चुका था भूनेसर यादव।
बिलौटी की हरक़तों से भूनेसर को ये तो पता चलता था कि वह उसमें रूचि लेती है, लेकिन उसके जीवन में आइ अन्य मज़दूरिनों की तरह नहीं है बिलौटी, ये भूनेसर ने अच्छी तरह तजवीज कर लिया था।
आज तक जाने कितनी स्त्रियां सरलता से उसकी आगोष में भागी-दौड़ी चली आइ है। बिलौटी किसी दूसरी मिट्टी की बनी लगती है।
भूनेसर गरमागम खाना खाने कााौकीन था।

वह फूंक-फूंक कर क़दम रख रहा था।

कोई टिप्पणी नहीं: