बिलौटी
के दिन मज़े में बीत रहे थे।
उसे
इस नए खेल में मज़ा आ रहा था।
हर
दूजे-तीजे दिन, सुनसान का फ़ायदा उठाकर पिछले दरवाज़े से बिलौटी उस आदमी के क्वाटर में चली जाती और पांच-दस रूपए का जुगाड़ बना लेती।
पिछला
दरवाज़ा
तभी
खुला
मिलता
जब आदमी घर में अकेला होता, अन्यथा दरवाज़ा बंद ही रहता।
मज़े
की बात यह थी कि बिलौटी के साथ ऊपरी छेड़छाड़ के अलावा वह अन्य कोइ बलात् हरक़त नहीं करता था। बिस्किट खिलाता, मिठाइ, िफ्ऱज़ का
ठंडा
पानी
या “ारबत पिलाता, गोद में बिठाता, प्यार-दुलार करता। कभी सीने से लगाकर ज़ोर से भींचता, कभी गाल को थूक से भर देता। ऐसे समय बिलौटी को उस आदमी के खूंटी उगे गाल और दाढ़ी की चुभन सुखद लगती। कभी-कभी वह बहुत हड़बड़ाया हुआ होता और बिलौटी को अपनी टांगों के बीच कस लेता। ऐऐ समय वह इस तरह हांफता जैसे मीलों दौड़कर आया हो। वह हांफते-हांफते निढाल हो जाता। उसकी सांसें नियंत्रण से बाहर हो जातीं। आंखें मुंद जातीं। फिर वह थक जाता और बिलौटी उसके चेहरे पर थकान की इबारत साफ़-साफ़ पढ़ लिया करती।
बिलौटी
जानती
थी कि अब जब उसकी चेतना लौटेगी तब वह बहुत बेचैन होकर उसे घर से बाहर निकालने की जुगत करेगा।
पता
नहीं
क्यों
थकान
के बाद उस आदमी के मन पैदा हुइ विरक्ति से बिलौटी को चिढ़ हुआ करती।
ऐसे
हालात
में
बिलौटी
को जवान होने के लिए साल या माह की ज़रूरत न थी। वह दिन-प्रतिदिन उम्र का एक-एक बरस लांघ-कूद रही थी। उसके चेहरे पर नमक दिखने लगा था। कूल्हे आकार लेना चाहते थे। सपाट सीने पर नुकीले उभार कषमकष कर बाहर आना चाहने लगे तो पगली मां का दिमाग ठनका।
पगली
मां
ने देखा कि सनीचरी और बिलौटी के बीच फुसफुसाहटें बढ़ती जा रही हैं। वे गुप-चुप बात कर अनायास हंसने लगती हैं। फिर पगली मां को देख हठात चुप भी हो जाती हैं।
बिलौटी
की सयानी होती देह के कारण पगली मां गुस्साकर उसे खूब गरियाती-लतियाती, लेकिन क्या इससे बिलौटी की देह की बढ़त पर लगाम लगता?
पगली
मां
न चाहती कि बिलौटी उसकी नज़र के सामने से तनिक देर भी ग़ायब रहे। लेकिन बिलौटी मां की आंखों में धूल झोंककर उस आदमी के क्वाटर चली ही जाती।
वह
जो भी चाहता, बिलौटी आंख मूंदकर मान जाती।
वह
आदमी
उसका
एक दोस्त सा बन गया था।
उसने
ही चचा के दौरान बिलौटी को बताया था कि पगली मां के पास कभी-कभी आने वाले रमाकांत की भूरी-बिल्ली आंख और बिलौटी की बिल्ली जैसी भूरी आंख में समानता क्यों है? उसे पगली मां से घृणा होती। जबकि उसका अपना जीवन खुद पथरीली राह का मुसाफ़िर था!
वह
देखती
कि कालोनी की उसकी हमउम्र लड़कियां कितनी चहकती रहती हैं। स्कूल बस में वे गाती-गुनगुनाती स्कूल जाती हैं। स्टेंड छोड़ने आए अपने मम्मी-पापा से कितना ज़िद करती हैं, इठलाती हैं ऐसे कि जैसे उनकी नाक से दूध जा रहा हो! जबकि उन लड़कियों की उम्र सनीचरी से भी ज्यादा होगी।
तीज-त्योहारों पर ये लड़कियां स्वप्न-लोक की परियों सी उड़ती, फुदकती रहती हैं।
एक
सुबह
जब बिलौटी सोकर उठी तो उसका सारा जिस्म दद से ऐंठ रहा था। उसने अपना माथा छूकर देखा तो लगा बुखार हो उसे। पेट के निचले हिस्से में भी मीठा-मीठा सा दद कोंचे जा रहा था।
उसने
फ्राक
उठाकर
अपना
पेट
सहलाया
और जब उसकी अंगुलियां चढ़ आइ चड्डी ठीक करने लगीं तो उसे कुछ गीलापन महसूस हुआ। हाथ बाहर किया तो वह अवाक रह गइ। अंगुलियां खून से सन गइ थीं। वह डर कर रोने लगी। उस आदमी के संसग से वह इतना तो जान गइ थी कि औरत की देह में एक माग ऐसा भी होता है, जिस पर चलने के लायक अभी वह हुइ नहीं है। किन्तु क्या रात अनजाने में उसने ऐसा कोइ ऐसा सफ़र तय तो नहीं कर लिया, जिस पर अभी उसे नहीं चलना था।
बिलौटी
सिसक-सिसक कर रोने लगी।
उसे
अपनी
मां
के पागलपन के कारण भी रोना आ रहा था।
पगली
मां
सुबह-सुबह उसका रोना सुनकर घबरा गइ और एक मोटी सी गाली देकर बिलौटी से रोने का कारण पूछा।
बिलौटी
को पहली बार अपने जिस्म से नफ़रत हुइ और अपनी दषा पर “ाम भी
आइ।
उसने
पगली
मां
के सामने अपनी फ्राक उठाइ।
पगली
मां
ने जब खून से भीगी उसके अंतवस्त्र देखे तो वह हंसने लगी।
उसने
बिलौटी
को राज़ की कुछ बातें बताइं।
सनीचरी
आइ तो बिलौटी उससे लजाने लगी।
पगली
मां
ने बिलौटी की नादानी का किस्सा उसे बताया। सनीचरी भी खूब हंसी फिर उसने बिलौटी को बताया कि इस उम्र से ‘अइसइ’ होना “ाुरू हो
जाता
है, इससे ‘काएको’ घबराना रे!
बिलौटी
तो समझ गइ उसकी बात और एक बात अच्छी तरह जान गइ कि अब बचपन अचानक उसके पास से जुदा हो गया है।
अब
वह सयानी हो गइ है।
अब
यदि
नादानी
हुइ
तो उसके गम्भीर परिणाम उसे भुगतने पड़ सकते हैं।
पगली
मां
ने बिलौटी के उठने-बैठने पर अघोषित प्रतिबंध लगाने लगी। उसे समाज और संसार की ऊंच-नीच के बारे में अपने अजित ज्ञान से दीक्षित करने का प्रयास करने लगी। उचित “ाब्दावली के
अभाव
में
पगली
मां
जब कोइ बात को समझा न पाती तब फिर गालियां और लात-जूते की भाषा का सहारा लेती।
सनीचरी
ने बिलौटी को पुराने कपड़े की ‘पेड’ बनाकर उपयोग करना सिखा दिया, ताकि महीने के उन चंद दिनों में उसे परेषानी न हो।
हां,
पगली
मां
ने एक फटी-पुरानी राजस्थानी साड़ी का आंचल फाड़कर बिलौटी को दिया कि अब इस दुपट्टे से वह अपना सीना ढांककर रखा करे।
बिलौटी
उम्र
के जिस पड़ाव पर थी वहां ऊंच-नीच, पाप-पुण्यत्र लाभ-हानि, जात-बिरादरी, आदि “ाब्द निरथक
और बेकार थे।
किषोरावस्था
तो सपने देखने की उम्र होती है।
यह
उम्र
रीति-रिवाज़ों की धारा बदल देने की क्षमता रखती है।
इस
उम्र
में
इंसान
के अंदर अद्भुत उजा होती है।
इस
उम्र
में
इंसान
खुद
रास्ता
तलाषना
और फिर उस पर निडर चलना चाहता है। वह नहीं चाहता कि कोइ उसे बच्चा समझे और क़दम-क़दम पर उसे ‘गाइड’ करे। वह खुद अपना भाग्य-विधाता बनना चाहता है।
एक
दिन
सनीचरी
ने बिलौटी से उसकी जाति जाननी चाही।
तब
बिलौटी
मौन
रह गइ।
उसने
आज तक इतने सवालों का सामना किया था, लेकिन जाति वाली बात तो आज तक किसी ने न की और न ही उसे इसकी ज़रूरत पड़ी थी।
तब
सनीचरी
ने स्वयं बताया कि बिलौटी ‘चमार’ है।
बिलौटी
ने हंस कर मान लिया।
उसे
क्या
फ़क
पड़ता
यदि
वह राजपूत होती या फिर ‘बामन’ होती।
और
फिर
‘चमार’ होना या बन जाने के लिए किसी प्रमाण की आवष्यकता नहीं पड़ती और न किसी गौरवषाली वंष-वृक्ष की ही। चमार कहलाए जाने पर ऐसा भी नहीं है कि चमार लोग विरोध करें। हां, यदि उसे खुद को बाभन, राजपूत, कुमी, भुमिहार, अहीर आदि बड़ी जातियों से जोड़ेने की ज़रूरत पड़ जाए तो बेषक सम्बंधित जातियों के लोग उसका विरोध कर सकते हैं।
बिलौटी
ने पगली मां से अपनी जाति के बारे में जानना चाहा तो वह मौन बैठी रही।
दुबारा-तिबारा पूछे जाने पर तमाम ज्ञात-अज्ञात जातियों को मां-बहिन की गालियां बकने लगी। बिलौटी की वही अध्यापक थी, वही स्कूल, वही कोस की किताबें, वही परीक्षक भी। वैसे भी बड़े-बड़े स्कूलों से पढ़े आलिम-फाजिल बिना नौकरी बेकार घूमते हैं, पगली मां की पाठषाला से गालियों का पाठ सीखकर यदि बिलौटी भी बेकार थी तो इसमें क्या आष्चय...
बिलौटी
का जीवन पुन: पुराने ढरे पर चलने लगा।
पगली
मां
उसके
लिए
कहीं
से मांग कर साड़ी-लहंगा और ब्लाउज़ ले आइ।
जब
वह साड़ी-ब्लाउज़ पहनी तो मारे हंसी के सनीचरी लोटपोट हो गइ।
ब्लाउज़
बहुत
बड़ा
झोलंगा
सा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ठूंठ पर कपड़ा डाल दिया गया हो। जैसे कि बिजूका!
सनीचरी
के पास ब्लाउज़ की साइज़ कम करने का आइडिया था।
वह
घर से सुइ-धागा ले आइ।
आस्तीन
और साइड को मोड़कर सुइ-धागे से सी दिया कि ब्लाउज़ की ‘फ़िटिंग-टाइट’ हो गइ। अब ब्लाउज़ बिलौटी के बदन पर फिट बैठा। इसी तरह लहंगे को भी नीचे से मोड़कर छोटा कर दिया गया था। साड़ी-ब्लाउज़ पहनकर बिलौटी ऐसी दिखने लगी, जैसे वह कोइ लड़की न हो बल्कि औरत हो। पगली मां को बिलौटी के इस रूप से प्यार हुआ। पगली मां, आंगन में फेंकी गइ टुटही कंघी लेकर बिलौटी के बाल बड़े प्यार से संवारने बैठ गइ। बिलौटी अपनी मां के इस आदत में बदलाव से बड़ी अचरज में थी।
·
यही
उसी
दिन
की बात है।
जब “ााम के ढलने पर आदतन घूम-फिर कर पगली मां लौटी तो काफी खुष थी।
बिलौटी
ने मां का चेहरा इतना प्रसन्न कभी न देखा था। सूखे छुहारे से निस्तेज चेहरे पर मुस्कुराहट की लकीरें उसके चेहरे को अजनबी सा बना दे रही थीं। उसने मां की खुषी का कारण जानना चाहा।
पगली
मां
ने बताया कि यादव पुलिसवाले के छोटे भाइ भूनेसर यादव को कॉलोनी मे कचरा-सफाइ का ठेका मिला है। रमाकांत और भूनेसर पक्के दोस्त हैं। संग दारू पीते हैं और छिनरइ भी साथ ही करते हैं। रमाकांत की सिफ़ारिष पर भूनेसर यादव ने पगलिया और उसकी बेटी बिलौटी पचास क्वाटरों के क्षेत्र की सफाइ की जिम्मेदारी सौंपी है। पगली मां को अपने दम काम न मिल रहा था, इसलिए रमाकांत के कहने पर पगली मां बिलौटी को भी साथ लाने को तैयार हुइ।
बिलौटी
रमाकांत
को जानती थी कि वह उसका बाप है, लेकिन भूनेसर यादव उसे फूटी आंख यन भाता था। रमाकांत के साथ कभी-कभी भूनेसर यादव जब पगली मां के पास आता तो वह उसे घूर-घूर कर देखा करता था।
बिलौटी
ने सोचा कि कहीं उसे अपने चंगुल में फांसने के लिए तो भूनेसर यादव ने पगली मां को काम पर रखा है? खै़र, वजह चाहे जो हो, हां, खाली पड़े-पड़े जीवन गुजारते बिलौटी ऊब रही थी। इसलिए उसने मां को हामी भर दी।
फिर
वह सनीचरी के साथ दोपहर के समय कॉलोनी भी चली गइ, ताकि काम का जायज़ा ले ले। सनीचरी ने उससे भी काम दिलवाने की सिफ़ारिष की, लेकिन बिलौटी ये कहकर टाल गइ कि पहले देखते हैं कि काम किस तरह का है और ‘‘इ ठीकेदार ससुरा पइसा-वइसा मारता तो नहीं।’’
कोयले
की खुली-खदान के कमचारियों को अच्छा वेतन मिलता था और पदानुसार उन्हें सरकारी आवास भी आबंटित होता था।
पचास
क्वाटरों
का जो क्षेत्र बिलौटी और पगली मां की टीम को सफाइ के लिए मिला था, उस कॉलोनी का नाम सेक्टर-सी था। तीन-तल्ला मकान का एक ब्लाक, जिसमें छ: क्वाटर थे। हर ब्लाक के चारों तरफ बाउण्डरी थी।
बिलौटी
लोगों
का दायित्व था कि हर ब्लाक की साझा सीढ़ी के कचरे और बाउण्डरी-वाल के बाहर फेंके गए कचरे की सफाइ प्रतिदिन की जाए।
सप्ताह
में
एक बार ट्रेक्टर आएगा, जिसकी ट्रॉली पर कचड़ा भरने का जिम्मा भी उन्हीं लोगों की टीम का होगा।
अगली
सुबह
जब पगली मां और बिलौटी भूनेसर यादव के ठीहे पर गए तो देखा कि वहां उनके जैसे कइ मज़दूर और रेजाएं काम बंटने की प्रतीक्षा में हैं।
अभी
ठीकेदार
भूनेसर
यादव
अपने
डेरे
से बाहर नहीं निकले हैं।
सुबह
की धूप अब तीखी हुआ चाहती है। कहीं छांह का नामो-निषान नहीं।
सभी
मज़दूर
इधर-उधर गुट बनाए बैठे या फिर खड़े गपिया रहे हैं
पगली
मां
और बिलौटी जब वहां पहुंची तो देखा कि वहां मज़दूर लोग उन्हें देखते ही चुपा गए। एक सन्नाटा सा छा गया।
सभी
बिलौटी
और पगली मां की इस कामगार जोड़ी को देख अचंभित थे।
वैसे
भी पगली का इस क्षेत्र में आना, फिर उसका गभवती होना और बिलौटी का उत्पन्न होना एक बतकही का मसाला तो था ही। सब जानते थे कि पगली अपने जवानी के दिनों में कइ ‘समरथ’ लोगों का एक खिलौना थी। मनबहलाव का साधन।
इसी
से उसकी रोजी-रोटी चल रही थी।
रमाकांत
और पगली प्रसंग कोइ ज्यादा पुरानी घटना तो थी नहीं।
किषोरवय
बिलौटी
उन मज़दूरों के आकषण का केंद्र बन गइ।
वाकइ
वह साड़ी-ब्लाउज़ में खूब जंच रही थी।
मज़दूर
औरतें
सोच
रही
थीं
कि अब ठीकेदार जब तक इस लड़की को खराब न कर लेंगे तब तक चैन से न बैठेंगे। हां, तब तक उन लोगों की जान बची रहेगी।
बिलौटी
ने उनकी तरफ ध्यान न दिया और भूनेसर यादव की प्रतीक्षा करने लगी।
नौ
बजे
के करीब भूनेसर यादव अपने मुंषी के साथ डेरे से बाहर आया और मुंषी लोगों को काम और जुगाड़ बांटने लगा।
पगली
मां
भूनेसर
यादव
के पास गइ और ठेकेदार ने मुंषी को उन्हें एक बेलचा, झाड़ू और एक तसला देने का आदेष दिया।
बेलचा,
झाड़ू
और तसला पाकर बिलौटी खुष हुइ।
बीस
रूपए
डेली
की हाजिरी और सप्ताह में एक दिन छुट्टी।
यानी
चालीस
रूपए
रोज़
की आमदनी होगी।
इस
तरह
पच्चीस
दिन
के एक हज़ार रूपए...
बिलौटी
की आंखें फैल गइं।
एक
हज्ज्ज्ज्ाार
रूपिया....महीना....
मां-बेटी ने मिलकर अपने ब्लाक की अच्छे से सफाइ की।
हां,
सफाइ
के दौरान एक पतली-दुबली छोकरी सी औरत ने क्वाटर से निकल कर उन्हें खाने के लिए डबल-रोटी दी और मुस्कुराइ भी।
ऐसी
ही एक और दयालु महिला थी वहां, जो कि इसाइ नस थी।
दुपहर
में
वह काम से लौटी तो पगली मां और बिलौटी को बाउण्डरी-वाल के साए में सुस्ताए हुए पाया।
सफेद-झक कपड़े पहने उस नस ने बिलौटी से पूछा-’’क्या रे, इदर क्या करता तुम लोग?’’
तब
बिलौटी
ने बताया कि उन लोगों को आज से इस ब्लाक की सफाइ का काम मिला है।
नस
सुनते
हुए
तीन-तल्ला में जा समाइ।
फिर
दूसरे
माले
की बालकोनी पर नस नज़र आइ।
उसके
हाथ
में
एक पोलीथीन का पैकट था।
उसने
ज़ोर
से आवाज़ लगाइ-’’एइ...लड़की!’’
बिलौटी
दौड़कर
बालकोनी
के नीचे जा खड़ी हुइ।
तब
नस ने ऊपर से वह पोलीथीन का पैकट नीचे गिरा दिया जिसे बिलौटी ने लपक लिया।
उस
पोलीथीन
में
केक
के टुकड़े थे।
सच,
बिलौटी
पिछवाड़े
वाले
उस आदमी की संगत में खाद्य-पदाथों की कइ वेराइटी से परिचित हो चुकी थी।
केक
उसे
वाकइ
बहुत
पसंद
था।
मां-बेटी भुखमरों की तरह केक पर टूूट पड़ीं।
खा-पीकर एक बार पुन: दोनों सफाइ के काम में जुट गइं।
तीन-तल्ला की सीिढ़़यों की
सफाइ
तो आधा घण्टा का काम था।
बाउण्डरी-वाल के पीछे पड़े कचरे को बीन कर कचरा-पेटी में भरने में ज़रूर समय लगा, लेकिन “ााम चार
बजे
तक दोनों फुसत पा गइं।
1 टिप्पणी:
rochak hai bhaiyya!!! chuthe kee prateekshaa hai...
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